आरएलडी बीजेपी गठबंधन के कारण और परिणाम

आरएलडी बीजेपी गठबंधन के कारण और परिणाम

जयंत चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वर्चस्व रखने वाले नेता है। इनकी पहचान राजनेता से अधिक जाट नेता के तौर पर है। भारत के पांचवे प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पौत्र है। वर्तमान में, ये अपने पिता अजित सिंह चौधरी द्वारा स्थापित राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष है। इनके पिता अटल बिहारी वाजपेयी नेतृत्व वाली सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री रहे थे, अजित सिंह का देहांत वर्ष 2021 में हुआ था। 

आरएलडी बीजेपी गठबंधन के कारण और परिणाम


जयंत चौधरी की पार्टी ने वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव महागठबंधन मे सपा-बसपा के साथ मिलकर लड़े थे। इस गठबंधन में जयंत चौधरी कि पार्टी को पश्चिमी यूपी कि कुल 27 में से 3 सीट मिली। जयंत की पार्टी को एक भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली थी। जयंत स्वयँ अपनी पुश्तैनी बागपत सीट से बीजेपी डॉ सतपाल मलिक से 23000 वोट से हार गए। इस दौरान इनके पिता को भी मुजफ्फर नगर से बीजेपी उम्मीदवार से शिकस्त मिली थी तीनों सीट पर आरएलडी दूसरे नंबर पर रही। किंतु इस क्षेत्र में सपा और बसपा 4-4 सीट जीतने में कामयाब रही। 2014 में भी आरएलडी को कोई सीट नहीं मिली थी। जयंत चौधरी स्वयं मथुरा से हेमा मालिनी से 3 लाख 30 हजार से अधिक मतों से शिकस्त खानी पड़ी।

आरएलडी बीजेपी गठबंधन कि संभावना -


भारतीय मीडिया में खबर आई कि बीजेपी और आरएलडी के बीच गठबंधन होने कि पूरी संभावना है। यह खबर यूँ ही रातोंरात नहीं आई है पिछले काफी दिनों से आरएलडी में एक खिचड़ी पक रही है। आरएलडी और सपा के बीच सीट बंटवारे को लेकर खींचतान चल रही हैं। दोनों पार्टी में सीटों के बंटवारे को लेकर कोई एक राय नहीं है। यह खबर पहले से ही भारतीय मीडिया देता रहा है, किंतु इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि होने कि कभी कोई खबर नहीं आई थी।


वर्तमान में आरएलडी पहले से ही मन बना चुकी है कि उन्हें सपा के साथ नहीं रहना। आरएलडी के नेता पहले से ही ब्यान दे चुके हैं कि समाजवादी पार्टी कैराना, मुजफ्फरनगर और बीजनौर से भी लड़ेगी तो आरएलडी क्या बंगाल में चुनाव लड़ेगी। ऐसा ब्यान देने कारण समाजवादी पार्टी द्वारा आरएलडी के समर्थन वाले इलाक़ों में भी अपना प्रत्याशी उतारने पर अड़े रहने के कारण ही आया होगा। हालांकि ऐसा ही है इसकी कोई पुष्टि नहीं है। किंतु एक गठबंधन में रहते हुए आपकी पार्टी के नेता सरेआम इस तरह के ब्यान दे तो समझा जा सकता है कि यह ब्यान गठबंधन में टूट का संकेत है।

आरएलडी पार्टी - 


1996 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह कांग्रेस पार्टी से सांसद चुने गए कुछ दिन बाद अजित सिंह ने काँग्रेस पार्टी और सांसद पद से इस्तीफा देकर 1997 में बागपत से अपनी नई पार्टी जो 1996 में बनी भारतीय किसान कामगार पार्टी से उपचुनाव लड़ा और बागपत से जीते भी। 1999 में इसी पार्टी का नाम परिवर्तित कर राष्ट्रीय लोक दल नाम दे दिया गया। अजित सिंह 1999, 2004 और 2009 का चुनाव इसी आरएलडी पार्टी से जीते। 

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी सर्वाधिक 5 लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रही। उस समय 10 सीट पर चुनाव लड़ा था। वर्ष 2014 में आरएलडी 8 सीट पर और 2019 में 3 सीट पर चुनाव लड़ी, किन्तु दोनों बार खाता नहीं खुला। 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब तक सबसे खास प्रदर्शन करते हुए 14 सीट जीती थी। अटल बिहारी वाजपेयी नेतृत्व वाली सरकार में अजित सिंह केंद्रीय कृषि मंत्री और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में अजित सिंह 2021-2014 में नागरिक उड्डयन मंत्री रहे थे। 


क्यो जा रहे जयंत चौधरी बीजेपी के साथ?


आरएलडी बीजेपी गठबंधन के कारण और परिणाम


जयंत चौधरी उत्तर प्रदेश में महागठबंधन में सपा और कांग्रेस के साथ है। वही भारत कि राजनीति में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले I.N.D.I.A. के गठबंधन के हिस्सा है। ऐसे में उनका कांग्रेस और सपा के साथ को छोड़कर बीजेपी के नेतृत्व वाले N.D.A. में जाना आश्चर्यजनक है, किंतु संभव नहीं। राजनीतिक अवसरों के लाभ प्राप्त करने के लिए पहले भी राजनीतिक दलों और आरएलडी स्वयं ही विभिन्न दलों के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा रह चुकी हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकारों में हिस्सा भी रह चुकी हैं। ऐसे में एक बार पुनः राजनैतिक अवसर प्राप्ति के लिए गठबंधन का बदलना अधिक आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि जयंत चौधरी कि आरएलडी को गठबंधन बदलने से निम्न लाभ होने की संभावना है - 

  1. सपा के साथ सीट शेयरिंग समझौता ना होना - आरएलडी सपा और बसपा के साथ गठबंधन करने बाद वर्ष 2019 में पार्टी स्थापना के बाद अब तक कि सबसे कम लोकसभा सीट से चुनाव लड़ी। पहली बार 3 सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद पार्टी का खाता नहीं खुलने से सपा चाहने लगी कि आरएलडी के प्रभाव वाली सीट सपा को दे दी जाए। कैराना, मुजफ्फरनगर और बागपत पर भी बात नहीं बनने के कारण आरएलडी सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन से किनारा करने लगी। ऐसे में बीजेपी आरएलडी के करीब आती गई। 
  2. पसंद कि सीट मिलना - सपा और बसपा के साथ पिछली बार महागठबंधन में आरएलडी को महज तीन सीट प्रत्याशी उतारने का मौका मिला। इस बार सपा इन सीटों पर अपना प्रत्याशी उतारने के मूड में है, ऐसे में आरएलडी को अपनी पसंद कि सीट मिलने कि संभावना कम नजर आ रही है। दूसरी ओर बीजेपी आरएलडी को अपनी पसंद कि सीट देने को तैयार है। आरएलडी को बीजेपी जितनी भी सीट देगी वो सभी आरएलडी कि पसंद के मुताबिक होगी। अपने वर्चस्व वाली सीट प्राप्ति के लिए आरएलडी बीजेपी के साथ गठबंधन करने को तत्पर दिख रही हैं। 
  3. मोदी कि गारंटी से अपने चुनाव चिह्न को बचाना - आरएलडी 2022 के लोकसभा चुनाव में 3% से भी कम मत प्राप्त कर 8 सीट पर जीती थी। वही लोकसभा चुनाव 2019 मे 2% से कम मत प्राप्त कर खाता तक नहीं खोल पाई थी। ऐसे में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2022 के बाद आरएलडी उत्तर प्रदेश में गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल बन गई। सपा और कांग्रेस के गठबंधन का उसे कोई लाभ नहीं हुआ। ऐसे में आरएलडी अब बीजेपी के साथ गठबंधन कर मोदी कि गारंटी से पुनः उत्तर प्रदेश में राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा प्राप्त कर अपने चुनाव चिह्न 'हैंडपंप' को बचाना चाह रही है। उसे स्पष्ट लग रहा है कि कांग्रेस और सपा के साथ रहते उसे अपना चुनाव चिह्न वर्तमान परिस्थिति में वापस मिलना संदेहजनक है। 
  4. जाट राजनीति का चेहरा बनना - वर्तमान में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार में कोई भी जाट नेता केबिनेट में नहीं है। अगर आप कहे कि देश में जाट राजनीति अपने बूरे दौर से गुजर रही है तो यह शत प्रतिशत सही होगा। ऐसे में जयंत चौधरी बीजेपी से गठबंधन कर अगर 3-4 सीट जीतने में भी कामयाब होते हैं तो वो जाट राजनीति का केंद्र बिंदु बन जाएंगे। कभी जाट और किसान राजनीति के बल पर देश में सरकार बनाने वाली पार्टियाँ अस्तित्वहीन हो रही हैं। ऐसे में अपनी पार्टी को पुनर्जीवित करने के साथ ही जाट राजनीति के बल पर केंद्र सरकार में कृषि मंत्रालय तक पहुंच बनाने का लक्ष्य आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद के बिना अधूरा है, जिसे पूरा करने के लिए वो बीजेपी से गठबंधन करने को तैयार है। 
  5. राजनैतिक अवसरों कि प्राप्ति - राजनीति का एकमात्र लक्ष्य सत्ता कि प्राप्ति। सत्ता कि प्राप्ति बिना पार्टी का क्या अर्थ? आरएलडी 2014 के बाद से सत्ता से दूर है। अजित सिंह, मनमोहन सिंह सरकार मे मंत्री रहे उसके बाद से सत्ता से दूर रहने से मतदाता पार्टी से छिटक रहे हैं, उन्हें पार्टी से दूर होने से रोकने के लिए पुनः राजनीतिक समझोता कर, पार्टी को सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन में ला अवसरों का लाभ प्राप्त करना होगा। सत्ता से दूर रही पार्टियां अस्तित्वहीन होने में अधिक समय नहीं लेती ऐसे में उपलब्ध अवसर प्राप्त कर उनका लाभ ले मतदाताओं को रिझाना ही होगा। 
  6. पार्टी को टूटने से बचाना - सपा द्वारा आरएलडी के वर्चस्व वाली सीट पर अपने प्रत्याशी उतारने कि जिद के साथ ही आरएलडी पार्टी के प्रत्याशियों कि निरंतर हार के चलते पार्टी के सदस्य और नेता पार्टी से किनारा करने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में पार्टी को टूटने से बचाने के लिए यही एकमात्र विकल्प बचा हुआ है, जिसका दोहन ही पार्टी को टूटने से बचा सकता है। 
  7. सपा का वोट आरएलडी को ना मिलना - आरएलडी के वर्चस्व वाली 27 लोकसभा सीट में से सपा और बसपा को 4-4 सीट मिली। आरएलडी गठबंधन के बावजूद खाली हाथ रही। ऐसे में एक बात स्पष्ट है आरएलडी का वोट गठबंधन कि अन्य पार्टियों को मिला किन्तु अन्य गठबंधन वाली पार्टियां (सपा और बसपा) का वोट आरएलडी को नहीं मिला। महागठबंधन का लाभ आरएलडी को नहीं मिलने से आरएलडी मात्र दूसरों को लाभ दिला खुद उनसे कोई उम्मीद ना रखे ऐसी गठबंधन कि एक पार्टी बनकर रह गई। ऐसे गठबंधन से दूर होना लाजिमी है, जो हो रही हैं। 

उपर्युक्त सभी कारणों के चलते आरएलडी बीजेपी के साथ जाने का मन बना रही है। हालांकि स्पष्ट रुप से हम कोई संकेत नहीं दे रहे हैं। यह सभी कारण हमने विश्लेषण के तौर पर लिखे है। किसी पार्टी के प्रवक्ता या संघठन से संपर्क नहीं किया। 

जाट समाज कि प्रतिक्रिया क्या होगी?


लंबे समय से जाट नेताओं और मोदी में दूरियां होने कि खबरे समाचार पत्रों के साथ टीवी चैनल पर दिखाई जाती रही है। किसान आंदोलन हो या पहलवान आंदोलन इसे भी जाट आंदोलन का अमली जामा पहनाकर जाटो कि बीजेपी से नाराजगी कि खबरे भी खूब बाजार में आई।

धरातल पर जाट बाहुल्य क्षेत्रों में बीजेपी चुनाव जीतती रही। हरियाणा में जनता जननायक पार्टी और बीजेपी का गठबंधन सफल रुप से सरकार चला रहा है। ऐसे में जाट समुदाय के मतदाता मोदी सरकार और बीजेपी से जुड़े हुए हैं। जयंत चौधरी और बीजेपी के गठबंधन कि खबरों से उन्हें अलग ही सुकून मिल रहा हैं। वो इसे जयंत का दूरदर्शी निर्णय करार दे रहे हैं।

कुछ समाज के नेता तो यह भी कह रहे हैं कि जयंत चौधरी को सीट संख्या पर अधिक बल देने कि बजाय उन्हें गठबंधन करने में अधिक तत्परता दिखानी चाहिए। इस गठबंधन में आरएलडी को जितनी भी सीट प्राप्त होगी सभी पर जीत हासिल करने में कोई संदेह नहीं है। दूसरी ओर महागठबंधन अगर अधिक सीट दे देता है तब भी एक भी सीट पर जीत कि गारंटी नहीं दे सकता है। ऐसे में जयंत चौधरी 4-5 सीट हासिल कर बीजेपी के साथ चुनाव लड़े और अस्तित्वहीन होती राजनीति को पुनर्जीवित करे। 

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