टिटहरी एक मध्यम आकार का पक्षी है। इसे स्थानीय भाषा में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। राजस्थान में पायी जाने वाली टिटहरी को काबर, टीटौली, घुरसल, गिलगलिया, किलहट, गुरसली, टिटोडी, काबर, गुलगुलिया आदि नामों से जाना जाता है। इसके नाम इसकी विशेषता के अनुरुप स्थानीय लोगों द्वारा स्थानीय भाषा में रखे गए। अंग्रेजी भाषा में इसे 'लेपविंग' कहा जाता है।
टिटहरी चिड़ियों के झुंड में भी अलग से ही पहचानी जा सकती है अपनी बनावट से। सामन्यतः यह जमीन पर बैठी हुई ही नजर आती है। इसकी टांगों को देखकर आसानी से दूर से ही पहचान की जा सकती है। सामन्यतः यह पक्षी नाडी, तालाब और अन्य जलाशयों के पास देखने को मिलता है।
टिटहरी का वैज्ञानिक वर्गीकरण -
पक्षी जगत का यह पक्षी स्कोलोपेसाइडे (Scolopacidae) कुल का है। विश्व भर में इसके कई समूह और जातियां है। सभी देशों के साथ ही भारत में पाई जाने वाली टिटहरी का रंग-रुप और आकार समान नहीं होने से इसे अलग-अलग जातियों में बांट रखा है। हालांकि भारत में पायी जाने वाली अधिकांश टिटहरी करेड्रिफाॅर्मिस गण वाली स्कोलोपेसी उपगण की पायी जाती हैं।
टिटहरी की पहचान -
टिटहरी की पहचान इसके आकार के साथ आकर्षण से होती है। सामन्यतः राजस्थान में पायी जाने वाली टिटहरी की लम्बी पतली और पीली टांगों से होती हैं। टांगे बीच से मुड़ी हुई होती है, ठीक वैसे ही जैसे मोर की होती है। इसे निहारने वालों के मन में अक्सर इसकी टाँगों को देखकर मन में आता है, यह पतली टांगे भार कैसे सहती होगी? इन्हीं टांगों की एक खास विशेषता के कारण यह पेड़ या बिजली के तार पर बैठ नहीं सकती है। इस प्रकार की टाँगों के कारण इसे दुर्बल पक्षी माना जाता है, इसलिए दुर्बल हो जाने व्यक्ति को उसकी दुर्बलता बताने या दुर्बलता का भाव प्रकट के लिए टिटहरी से तुलना कर कहावत बोली जाती है। दुर्बल को कहा जाता है कि "थाक नै टिटोङी हुग्यो" यानी टिटहरी की तरह दुर्बल हो गया।
टिटहरी का रंग धूसर (मिट्टी जैसा) होता है जो उसे छिपने में सहायता करता है। पेट और गर्दन सफेद होती है। पूंछ काली और चोंच पीली होती है। हालांकि पूंछ और चोंच प्रजाति और उपवर्ग के अनुसार अलग रंग की भी हो सकती है। गर्दन काली जिसमें सफेद पट्टी होती है, गर्दन बगुले से छोटी लेकिन चोंच बगुले के जितनी ही लंबी होती है। टांगे और चोंच बगुले जैसी होने के कारण कुछ लोग इसे बगुले के समान दिखने वाला पक्षी बताते हैं। आँखों के पास (गुदा) का रंग सामन्यतः लाल अथवा पीला होता है। इसकी लंबाई 32-35 सेमी (11-13 इंच) वजन 120-230 ग्राम का होता है। टिटहरी के पंख का फैलाव इसकी लंबाई के मुकाबले से अधिक करीब 80-85 (31-33 इंच) होता है, जिसकी वज़ह से यह अच्छी उड़ान भरने में सक्षम होती है। टिटहरी समूह में रहना अधिक पसंद करती है, लेकिन समूह के अभाव में इन्हें जोड़े में ही देखा जाता है, अकेली टिटहरी बहुत कम देखने को मिलती हैं।
टिटहरी बिजली के तार पर क्यों नहीं बैठती?
टिटहरी बिजली के तार और पेड़ पर बैठना पसंद नहीं करती है। यह मैदान में बैठी हुई अधिक दिखती है। सामन्यतः इनके घोंसले में जमीन पर ही होती है। इसके पेड़ या तार पर नहीं बैठने की वजह इसकी टांगों की बनावट है। इसके पंजे की शारीरिक बनावट इन्हें पेड़ पर पकड़ बनाने में सहायक नहीं है। टिटहरी के पंजे में तीन अंगुली होती है, जो आगे की तरफ होती है, पीछे अंगुली नहीं होने के कारण (जिसे आप नीचे चित्र में देख सकते हैं) यह पेड़ या तार पर पकड़ बना संतुलन नहीं बना सकती है, जिसके कारण ही यह पेड़ पर बैठना पसंद नहीं करती हैं।
टिटहरी की पेड़ पर बैठने की पकड़ नहीं होने के कारण यह जमीन पर घोंसला बनाकर रहती है। अपने घोंसले या जमीन पर जब सोती है, तब पैरों को जमीन से ऊपर रखती हैं। जिसके कारण यह सोते समय पैर उपर कर देती है। कुछ लोग कहते हैं कि उसके पैर उपर करके सोने का कारण खुद को ठंड से बचाना है, जो पैरों को अधिक लगती हैं। उसकी इसी स्थिति के कारण यह सामन्यतः अंडे भी जमीन पर ही देती है। जब पेड़ पर अंडे देती हैं तो माना जाता है उस वर्ष अधिक वर्षा होगी तथा जमीन पर अन्य कोई आपदा आने का डर रहता है।
टिटहरी कहाँ से लाती है, पारस पत्थर?
माना जाता है कि टिटहरी पारस पत्थर से अंडों को तोड़ती है। ऐसा उस स्थिति में करती है, जब वह जमीन पर अंडे देती हैं। कहा जाता है कि पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता है, यह बहुत महँगा पत्थर है। ऐसा पत्थर जमीन पर खोजना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन टिटहरी यह खोज लाती है और अपने अंडे इसी पत्थर से तोड़ती है? ऐसे में मन में अक्सर प्रश्न आता है कि अपने अंडों को तोड़ने के लिए टिटहरी पारस पत्थर कहां से लाती है?
कई लोग ऐसा भी मानते हैं कि पारस पत्थर हिमालय के जंगल में मिल जाता है, बस पत्थर की पहचान होनी चाहिए। टीटहरी भी वहीँ से पत्थर लाई होगी जो अंडे तोड़ने के बाद किसी विशेष स्थान पर रख दिया जाता है, वही से उठाकर लाकर इसे काम में लेती होगी। कई लोग कहते हैं कि टिटहरी अंडे नहीं सेंकती है, जिसके बारे में स्पष्ट नहीं है क्योंकि दिन में कई बात टिटहरी इसके पास बैठती है लेकिन रात के समय में यह पैर उपर कर सो जाती हैं।
टिटहरी देती है, बरसात का संकेत -
टिटहरी के अंडे देने की स्थिति से बरसात के संकेतों का पता लगाया जा सकता है। टिटहरी का प्रजनन काल मार्च से अगस्त तक का होता है। मई से अंडे देने के बाद से लोग टिटहरी के अंडों को देखकर बरसात का अनुमान लगाते हैं। अनुमान लगाने वाले कहते हैं कि अगर टिटहरी ऊंचाई पर (पेड़, छत या जलकुंड की पाल) अंडे देती है तो इसका अर्थ है बरसात अधिक होगी, इसलिए उसने अंडों को पानी में बह जाने से बचाने के लिए भूमि की बजाय ऊंचाई पर अंडे दिए हैं।
ऐसा माना जाता है कि टिटहरी जितने अंडे देती हैं, उतने महिने मॉनसून रहता है। अगर चार अंडे देती है इसका अर्थ चार महीने मॉनसून रहेगा। बारिश कितने महिने होगी यह देखने के लिए अंडे का मुँह (नुकीला सिरा) देखते हैं, अगर नुकीला सिरा जमीन की तरफ यानी नीचे है तो ऐसे अंडे गिन उतने महिने कि बारिश का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरण के लिए अगर टिटहरी ने चार अंडे दिए यानी चार महीने मॉनसून रहेगा। उन चार अंडों में से तीन का मुँह जमीन की तरफ है तो तीन महीने अधिक बारिश होगी। ठीक उसी तरह जलाशयों के पास अंडे देने पर दूरी के अनुसार अनुमान लगाया जाता है, अगर दूरी कम तो बारिश कम और दूरी अधिक तो बारिश अधिक होती है।
टिटहरी के शकुन -
टिटहरी बरसात का शकुन देने वाली पक्षी जो यह बता देती है कितनी बारिश होने वाली है। साथ ही बारिश ना होने का भी शकुन दे देती है। कई लोग बताते हैं कि जिस वर्ष टिटहरी सूखे तालाब के बीच अंडे दे तो समझो उस वर्ष बारिश नहीं होती है।
इसके अतिरिक्त टिटहरी के बोलने से भी शकुन और अपशकुन का अंदाजा लगाया जाता है। जब टिटहरी घर की मुंडेर पर बोले तो समझो कुछ तो अनायास होना है, लेकिन जमीन पर बोलने का कोई अर्थ नहीं माना जाता है। वैसे की किसी यात्रा पर निकलने पर टिटहरी के बांयी ओर बोलना शुभ और दांयी ओर से बोला जाना अशुभ माना जाता है। ह पहले किसी यात्रा से पूर्व ये सभी शकुन माने जाते थे, लेकिन वर्तमान समय तो तकनीक और विज्ञान का समय है जिसमें इनका कोई अर्थ नहीं माना जाता है, इन्हें महज अंधविश्वास माना जाता है। आज के इस युग में भी गांवों में इस प्रकार के शकुन मे विश्वास करने वालों की काफी संख्या हैं।
टिटहरी का स्वभाव -
टिटहरी सामाजिक स्वभाव का पक्षी है। यह झुंड में रहने वाला मनमौजी पक्षी है। किसी खतरे को भांप लेने के बाद जोर-जोर से चिल्लाना इनकी आदत होती है। यह जोड़े में रहने वाला पक्षी है, जो नर और मादा दोनों ही अंडों को सेती हैं। अपने दुश्मन को देख सभी एक-दूसरे को सचेत कर देते हैं, जो आम रुप से सभी चिड़िया में पाया जाता है।
टिटहरी का आहार -
यह सर्वहारी पक्षी है, जो खेतों में छोटे-छोटे कीड़े चुगते मिल जाता है। जलाशयों के पास भी किसे उड़ते कीट का भक्षण करते हुए देखा जा सकता है। ये शिकार के लिए छोटी उड़ान भर झपटा मार की बजाय जमीन पर दौड़ते कीड़े को पकड़ते है। कई बार उन्हें गाय और अन्य पालतू जानवरों के शरीर पर पाए जाने वाले कीड़े का भक्षण करते हुए भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन्हें केर जैसी झाड़ियों में भी कुछ खाते हुए देख लगता है कि यह छोटी वानस्पतिक फलों को भी खाते हैं। हालाँकि वनस्पति इनका पसंदीदा भोजन नहीं है, इनका पसंदीदा भोजन कीड़े का भक्षण ही है।
टिटहरी की घटती संख्या -
टिटहरी लुप्तप्राय होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षो से इनकी संख्या में काफी कमी आई है। इसकी लुप्त हो रही संख्या के कारण ही अंतरराष्ट्रीय यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर एवं नेचुरल रिर्सोसेस (आईयूसीएन) ने वर्ष 2006 में सलेटी टिटहरी को लुप्तप्राय पक्षी मानते हुए रेड बुक में रखा हैं। टिटहरी की संख्या कम होने के निम्न कारण है -
- मशीनों द्वारा खेती - मशीनों द्वारा खेती किए जाने से जमीन पर खेतों में दिए जाने वाले अंडे नष्ट हो जाते हैं, जिससे इनकी संख्या में वृद्धि कम हो गई है, उसी के कारण इनकी संख्या में दिनोंदिन कमी आ रही हैं।
- मोबाइल टावर - दिनोंदिन बढ़ते मोबाइल टावर के कारण उनसे निकलने वाली रेडियोएक्टिव किरणों से इनकी मौत हो रही हैं। यह सिर्फ इनके साथ ही नहीं है बल्कि कई अन्य प्रकार के पक्षियों के साथ भी हो रहा है।
- बिजली लाइन - बिजली के तारो में उलझने से भी मौत हो रही है तो दूसरी ओर खुले तार को छू लेने के कारण भी।
आज यह पक्षी विलुप्ति की कगार पर आ गया है। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि अगर हमे कहीं धूसर रंग के धब्बों वाले अंडे नजर आए तो इन्हें संरक्षित करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। धब्बों वाले अंडे टिटहरी के अंडे होते हैं, इन्हें बचाने के प्रयास किए जाने चाहिए और इन्हें हाथ भी नहीं लगाना चाहिए।
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