बंगाल कि राजनीति में दीदी पर दादा भारी। Subhendhu Adhikari

बंगाल कि राजनीति में दीदी पर दादा भारी। Subhendhu Adhikari

कल जब पश्चिम बंगाल में शाहजहां शेख की गिरफ्तारी हुई तो उसके बाद एक नहीं, कई हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के टीवी चैनल्स को पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों के साथ खासतौर से संदेशखाली, जहां हाल ही में हिंदू परिवारों की महिलाओ को टीएमसी के नेताओ से शौषण का शिकार होना पड़ा। संदेशखाली से लाइव टेलीकास्ट देख मन को अद्भूत शांति मिली, जो 20 दिन पहले उसी क्षेत्र की लाइव टेलीकास्ट को देखकर मन को ग्लानि से भर देती थी। लेकिन कल लगने लगा कि वाकई पश्चिम बंगाल एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है और पुराना दौर भारी मन से अलविदा कहने खुद को मानव की परछाई से से छिपाने का प्रयास रहा है। 
बंगाल कि राजनीति में दीदी पर दादा भारी। Subhendhu Adhikari mamta par Bhari

पश्चिम बंगाल में वामपंथ के लंबे शासन को दरकिनार कर प्रदेश की जनता ने नई उमंग, जोश और उत्साहित मन से सत्ता ममता बनर्जी (जिसे आप दीदी के नाम से बेहतर रुप से जानते हैं) को सौंपी थी। उन दिनों को जब याद करता हूँ कि कैसे वामपंथ को नकार बंगाल की जनता ने ममता बनर्जी को सत्ता सौंपी? तो फिर मन कांप उठता है और सवाल करने लगता है भला ऐसे भी कोई पुरानी सत्ता को उजाड़ नई सत्ता ले आता है, जिसमें विकास का मुद्दा और वादा ना सिर्फ गायब है बल्कि नकारात्मक है, जो कहता है आप हमे सत्ता में ले आओ, हम आपको गरीबी की गारंटी देते हैं। 

कैसे आई ममता बनर्जी गरीबी के वादे के साथ सत्ता में - 


आपको दुनिया की सबसे सस्ती 'आम आदमी की कार' तो याद होगी ही, जो रतन टाटा ने अपने कहे शब्दों का मान रखते हुए भारतीय बाजार में मात्र एक लाख रुपये मे लांच की थी। सिर्फ एक लाख रुपये की कार की कहानी के जैसी ही रोचक है उसी कार के प्लांट से जुड़ी वो घटना जिसने पश्चिम बंगाल में वामपंथ के शासन को उखाड़ कर ममता बनर्जी को सत्ता की चाबी सौंपी। पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन के पीछे एक वही बड़ा कारण था जिसके लिए ममता बनर्जी को सत्ता की चाबी मिली। ममता बनर्जी को सत्ता हासिल करने के लिए ना कोई लंबे-चौड़े वादे करने पड़े और ना ही जनता को कोई विकास की उम्मीद कि किरण दिखाई थी, जनता त्रस्त थी वामपंथ से और उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए एक ऐसी पार्टी को सत्ता दी जिसके पास भी कोई विजन था ही नहीं और विकास की उम्मीद की कमी भी साफ झलक रही थी। 

टाटा नैनो के उत्पादन और निर्माण के लिए टाटा कंपनी को पश्चिम बंगाल की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया कि सरकार जिसे अब तक वामपंथ दल से संबोधित किया। उसी वामपंथ की सरकार नें टाटा को पश्चिम बंगाल आमंत्रित कर नैनो के निर्माण के लिए सिंगुर में 997 एकड़ जमीन दी। वामपंथ के बरसों के शासन में बेहाल हुआ पश्चिम बंगाल में टाटा पहली कंपनी बनी, जिसने पश्चिम बंगाल में भारी निवेश के लिए हामी भरी। हालांकि टाटा की हामी वामपंथ पर कितनी भारी पड़नी थी इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं था। भूमि के आवंटन के कुछ दिन बाद ही सरकार को विभिन्न किसान संगठनों की नाराजगी को झेलना पड़ा। नाराज किसान संघठन आन्दोलन पर उतारु हो गए और इस आंदोलन ने कुछ ही समय में बड़ा रूप ले लिया। इस आन्दोलन को उग्र रुप देने के लिए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष ममता बनर्जी आन्दोलनरत किसान संगठनों के साथ हो गई और उद्योग के लिए हुई भूमि आबंटन का विरोध का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 

एक ओर इस आंदोलन ने बंगाल में ममता बनर्जी को बड़ा नेता बनाकर उभारा। दूसरी ओर बढ़ते आंदोलन के डर को देखते हुए वामपंथ दल की सरकार नें आंदोलन को खत्म करने के लिए सिंगुर में टाटा को आवंटित की गई भूमि के सौदे को रद्द करना पड़ा। टाटा तो सिंगुर से गुजरात के सांणद पहुंच गई, किन्तु ममता बनर्जी विपक्ष से सत्ता में आ गई। 

विकास का मुद्दा गायब ही था - 


ममता बनर्जी को किसी मुद्दे ने सत्ता तक पहुंचाया तो वह था टाटा कम्पनी को सिंगुर भूमि के आवंटन को बाद में रद्द किया जाना। इस मुद्दे ने ममता को एक तेज तर्रार नेत्री के रुप में उभारा और लोगों के दिलों में भूमि आवंटन को निरस्त कराए जाने की पैठ बनाई। 

इस मुद्दे पर पिछले 30 बर्षों से सत्ता में काबिज वामपंथ को सत्ता से दूर कर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गई। हालांकि टाटा को आवंटित की गई भूमि का क्या होगा? इस बारे में कभी किसी ने ममता बनर्जी से पूछने का दुस्साहस नहीं किया। बिना उद्योगों के पश्चिम बंगाल का विकास कैसे होगा,l? यह सवाल भी गायब रहा। उद्योग जगत के लोग और प्रबंधन तो ममता बनर्जी से कितनी दूरी बनाकर दूर खड़े है, यह बात हर कोई जानता है। 

बर्षों के बाद सिंगुर का मुद्दा पुनः तब चर्चा में आया जब बंगाल में 2021 में विधानसभा के चुनाव थे। अब कुछ मीडिया यहां खाली पड़ी जमीन की बात कर रहा था लेकिन जमीन खाली होने के दस साल बाद भी ममता बनर्जी की तरफ से कोई जबाब नहीं आ रहा था।लेकिन पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने टाटा द्वारा दायर किए गए मुकदमे पर फैसला सुनाते हुए 766 करोड़ का जुर्माना के तौर पर बंगाल की सरकार को टाटा कंपनी को देना होगा। यह निश्चित रुप से ममता बनर्जी की वैचारिक हार तो है ही लेकिन उसके गलत इरादों का मौद्रिक भुगतान प्रदेश की तिजोरी से किया जाना होगा। 

दीदी पर दादा भारी क्यों? 


ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल की जनता प्यार से दीदी कहती हैं। दीदी का जलवा भी बड़ा भारी है। मुख्यमंत्री के रुप में एक कड़क नेता के रुप में जो पहचान बना रखी है, ठीक उसी प्रकार से ममता बनर्जी के खास तौर तरीके भी हैं। दीदी के खास तौर तरीकों में एक पत्रकारों को बाइट देना भी है। ममता बनर्जी अक्सर मीडिया से बात करते मुँह के सामने कैमरा और माइक्रो फोन पसंद नहीं करती, कैमरा काफी दूर होने के कारण उसके पीछे खड़ी महंगी सरकारी गाड़ी साफ दिखती है, जितना बोलती है उससे अधिक भाव और इशारे की भाषा का प्रयोग करती हैं। यह ममता बनर्जी की अपनी पहचान रही है। 

पिछले दिनों जब से संदेशखाली की घटना हुई तब से पश्चिम बंगाल सरकार महिलाओं का विरोध झेल रही है। लेकिन जब संदेशखाली में टीएमसी नेताओ और ममता बनर्जी सरकार का विरोध करने वाली महिलाएं मुँह ढककर या घूंघट निकाल अपनी पहचान को छुपाकर आंदोलन कर रही थी जो कल शाहजहां शेख की गिरफ्तारी के बाद घूंघट में ना नजर आई और ना मुँह छुपाया। कल वो महिलाएं पटाखे फोड़ती, थाली बजाती और जीत का जश्न मनाते नजर आई। 

दादा का वादा खत्म होगा शोषण - 


मुँह छुपाती औरतें अब खुले वातावरण में खुल कर बोल रही है और ममता बनर्जी सरकार के राज भी खोल रही है। ममता बनर्जी खुद भी संदेशखाली की घटना के बाद बैकफुट पर साफ नजर आ रही है। आजकल ममता बनर्जी ना तो 10 फुट की दूरी बना मीडिया को ना बाइट दे रही है और ना ही वायरलेस माइक्रो फोन का इस्तेमाल कर जनता के सामने खड़ी हो भाषण दे रही है, कुल मिलाकर अपनी अनोखी पहचान के सभी जलवे गायब है। औरतों को मुँह छिपा कर शोषण का विरोध करने को मजबूर करने वाली ममता बनर्जी खुद आजकल छिप रही हैं मीडिया से। ईडी पर हमले के बावजूद शाहजहां शेख को पार्टी से बाहर नहीं करने वाली ममता बनर्जी उसकी (शाहजहां शेख) गिरफ्तारी के कुछ घंटे बाद उसे पार्टी से बाहर कर देती है। 

य़ह सब ममता बनर्जी के बड़े हृदय के फलस्वरूप नहीं हो रहा है, यह सब हो रहा है पश्चिम बंगाल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी के द्वारा जनता को सुशासन और सुरक्षा का भरोसा देने के बाद जनता के विरोध और जोश के कारण झुकी है, ममता बनर्जी। शुभेंदु  अधिकारी को पश्चिम बंगाल की जनता दादा कहकर संबोधित करती हैं। इन्हीं दादा का अन्याय और शोषण के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है, उसी के कारण ममता बनर्जी के तेवर पस्त नजर आ रहे हैं। 

दादा ने पश्चिम बंगाल की जनता को शोषण के खिलाफ दम भरने के लिए जो प्रशिक्षण दिया उससे अधिक टीएमसी की सरकार होने के बावजूद सुरक्षा का भरोसा। जनता ने उनके भरोसे को जब संदेशखाली में शाहजहां शेख की गिरफ्तारी के रुप में धरातल पर उतरते देखा तो उन्हें उम्मीद बंधी की वो जब जनता के साथ खड़े होते हैं तो काम को अंजाम देकर ही दम लेते हैं। 

बंगाल की महिलाओ ने वो जोश दिखाया जो जोश हमेशा पूरे देश की महिलाएं नरेन्द्र मोदी के समर्थन में दिखाती है। जनता के इसी जोश ने ममता बनर्जी को वो निर्णय लेने को मजबूर किया जो वह अब तक संघ और आरएसएस की साजिश कहकर टाल देती थी। इस बार बेबस हो शाहजहां शेख को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया और ना ही उसकी गिरफ्तारी में बाधा बनी। 

यह सब पश्चिम बंगाल में घटता देख लोगों को टाटा के नैनो प्लांट को वापस लेने वाली वामपंथ के निर्णय की बेबसी वाली झलक ममता बनर्जी में दिखी। अब तक बंगाल में बेबसी कभी सत्ता पर हावी ना हो सकीं। अब कि बार तो मामला भी सिंगुर से अलग है, शुभेंदु अधिकारी इसे न्याय की लड़ाई बता रहे हैं शोषण के विरुद्ध। अधिकारी की दावेदारी में लोग खुलकर को साथ दे रहे हैं और अधिकारी भी शोषित वर्ग के साथ खड़े हो ममता के गुरुर पर जो चोट कर रहे हैं, जिसके घाव ममता बनर्जी के हावभाव में साफ झलक रहे हैं वो तो यही बता रहे हैं कि - 

बंगाल की राजनीति में दीदी पर दादा भारी।
शोषण के खिलाफ खड़ा शुभेंदु अधिकारी।।

ममता और ममता सरकार बैकफुट पर - 


अक्सर तीखे तेवर रखने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब नरम नजर आ रही है। शुभेंदु अधिकारी के नेतृत्व वाला विपक्ष ममता सरकार पर भारी पड़ रहा है। जिसका हालिया स्वरुप देखने को मिला बंगाल शिक्षक भर्ती 2016 के उदाहरण में। हाई कोर्ट ने 24000 शिक्षक भर्ती को 6 साल बाद ना सिर्फ रद्द ही किया बल्कि नियुक्त किए गए शिक्षको को 6 साल में उठाई गई तनख्वाह को ब्याज सहित वापस सरकारी खजाने में जमा कराने के लिए कह दिया। हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ ममता सरकार नें सुप्रीम कोर्ट का रुख किया तो सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से इंकार तक कर दिया। हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद ममता शिक्षक भर्ती पर कोई सवाल नहीं कर रही है और ना ही अपने पूर्व मंत्री और पार्टी के नेता पार्थ चटर्जी पर। ममता सरकार भ्रष्टाचार के आरोप में चौतरफा घिरी हुई नजर आ रही है यही कारण है की ममता पूरी तरह से बैकफुट पर है।

क्यो रद्द हुई बंगाल शिक्षक भर्ती?


बंगाल में वर्ष 2014 में शिक्षको की नियुक्ति करने वाले बंगाल स्कूल सर्विस कमिशन ने 24000 शिक्षको की नियुक्ति के लिए विज्ञप्ति जारी की। भर्ती विज्ञापन के पदों की भर्ती प्रक्रिया 2016 में पूरी हुई। तब टीएमसी नेता पार्थ चटर्जी शिक्षा मंत्री (अब जेल में है) थे। भर्ती प्रक्रिया में कई अनियमितता होने के आरोप लगे और भर्ती को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई। हाई कोर्ट जाने वाले अभ्यर्थियों के आरोप थे कि जिन अभ्यर्थियों के कम नंबर आए वो मेरिट में ऊपर थे और साथ ही जिन लोगों ने परीक्षा नहीं दी उनका भी चयन हो गया। भर्ती प्रक्रिया में पैसे लेने के कई आरोप लगे।

सीबीआई ने जांच शुरु की तो मनी ट्रैल सामने आया। ई डी की छापेमारी में पार्थ चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी के घर 21 करोड़ रुपए भी ज़ब्त हुए थे। हाई कोर्ट ने भर्ती में हुई अनियमितता को सही मानते हुए इसे रद्द ही कर दिया। पार्थ चटर्जी पहले से ही मनी लॉन्ड्रिंग के केस में जेल में है।

इस भर्ती और हाई कोर्ट के फैसले ने ममता और ममता बनर्जी सरकार की साख पर विपरीत प्रभाव किया जिसके चलते ममता बनर्जी की साख बूरी तरह से गिरी। वर्तमान में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी की पश्चिम बंगाल की सरकार महिला उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, तुष्टीकरण और तानाशाही रवैय्या के आरोप का ना सिर्फ सामना कर रही है बल्कि साबित मुद्दो से जुझ रही है। ऐसे में ममता बनर्जी पहली बार इतनी कमजोर लग रही है। राजनीति के विशेषज्ञ मानते हैं ममता बनर्जी के ईन हालातों के पीछे शुभेंदु अधिकारी के नेतृत्व वाले मजबूत विपक्ष का हाथ है जिसने ममता सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोल उसका असली चेहरा जनता के सामने रख दिया है।

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