राजस्थान में पक्षियों कि प्रजातियों कि कोई कमी नहीं है, यहाँ विभिन्न प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं। छोटे बड़े कई तरह के पक्षियों से भरा पूरा है, रंगीला राजस्थान। घरेलू पक्षियों के साथ सालभर विदेशी मेहमान पक्षी भी राजस्थान कि धरा पर अपने परिवार के विस्तार के लिए आते रहते हैं। ऐसा ही एक विदेशी पक्षी है, जिसे कुरजां कहा जाता है, हज़ारो किलोमीटर कि उड़ान भर सर्दियों के मौसम में राजस्थान आता है, अपने परिवार के विस्तार के लिए।
कुरजां अथवा डेमोइसेल सारस (Demoiselle Crane), ग्रुस वंश का पक्षी है। ग्रुस वंश से सम्बन्धता के कारण इसका वैज्ञानिक नाम ग्रुस वर्गो रखा गया। यह सारस पक्षी के समान आकार, ऊंचाई होने के साथ ही इसका संबंध भी सारस जाति से है। यह राजस्थान के मूल पक्षी नहीं होने के बावजूद भी राजस्थान कि संस्कृति में इनका प्रमुख पक्षियों में स्थान है। राजस्थान के लोग इन्हें मेहमान पक्षियों कि भाँति नहीं देखते हैं, बल्कि वो इन्हें राजस्थान के मूल पक्षियों के रुप में ही सम्मान देते रहे।
कुरजां पक्षी कैसे होते हैं?
कुरजां पक्षी कि पहचान इसके रंग रुप और ऊँचाई से आसानी से कि जा सकती है। इनका रंग सलेटी होता है। गर्दन और सिर काले रंग का होता है। गर्दन के नीचे काले रंग के पंख इन्हें अन्य पक्षियों से अलग करते हैं, यह गर्दन के नीचे लटकते काले बाल इन्हें आकर्षक रुप देते हैं, ठीक वैसा ही जैसा मोर के सिर कि कलंगी मोर को अन्य पक्षियों से अलग रुप देती है। इनके आंख के पीछे कान सफेद रंग के दिखते हैं। काले लंबे पैर और छोटी चोंच इन्हें सारस कि प्रजाति के पक्षियों में पहचान दिलाती है। हल्के भूरे - नीले रंग के पंख और इनका सलेटी रंग सारस से विभेद करता है।
एक वयस्क कुरज पक्षी कि ऊंचाई 85-100 सेंटीमीटर (औसत 3 फीट), 76 सेंटीमीटर (3 फीट) ऊंचाई, 155-180 सेंटीमीटर (5-6 फीट) पंखों का फैलाव वाला शर्मिला पक्षी होता है, जिसका वजन सामन्यतः 2-3 किलोग्राम होता है। इनका हल्का वजन और लंबे पंख किलोमीटर कि उड़ान भरने में सहायता करते हैं। यह सारस से थोड़ी छोटी (लंबाई और ऊंचाई में) होती है, किंतु पंखों का फैलाव सारस के समान ही होता है। यह समान्य सारस से तेज आवाज करती है, और छलांग भी कम लगा सकती है।
इनका स्त्रीलिंग नाम होने का कारण इनकी सुन्दरता और नाजुकता से संबंध है। कुरजां का नाम डेमोइसेल सारस (Demoiselle Crane) क्वीन मैरी एंटोनेट (Queen Marie Antoinette) द्वारा इनकी सुन्दरता और नाजुकता को देखकर रखा गया। इनकी सुन्दरता के साथ स्वभाव भी एक महिला कि भाँति अधिक शर्मिला है।
कुरजां का मूल/ कुरजां कहाँ पायी जाती है? -
यह मध्य यूरेशिया (यूरोप और एशिया के मध्य का भाग, जिसे बांटा नहीं गया है), कृष्ण सागर (युक्रेन, रुस, तुर्की, जॉर्जिया बुल्गारिया और रोमानिया के भूभाग पर फैलाव) से मंगोलिया (पूर्वी एशिया) और पूर्वोत्तरी चीन के ठंडे इलाको के मूल का पक्षी है। सर्दी के मौसम में इन इलाको से यह भारत खासतौर से राजस्थान प्रवास के लिए आता है।
यह पक्षी रुस के साइबेरिया और इससे सटे हुए इलाको में पाया जाता है, साइबेरिया पश्चिम में काला सागर से दक्षिण मंगोलिया, चीन तक फैला हुआ है। वहाँ सर्दी के मौसम कि शुरुआत होने से पूर्व, कुरजां अपनी ऊंची उड़ान भर गर्म प्रदेशों कि ओर निकल जाती है। ऐसे में वो हिमालय को पार कर भारत पहुंचती है, तो राजस्थान भी कई दल पहुंच जाते हैं।
कैसे आती है कुरजां राजस्थान?
साइबेरिया में सर्दी के मौसम कि शुरुआत होने से पूर्व कुरजां जत्थे (कई पक्षियों का समूह) अथवा दल बनाकर उड़ान भरती है। इनका दल अफगानिस्तान, कजाकिस्तान और पाकिस्तान के ऊपर से उड़ता हुआ करीब 6,000 किलोमीटर कि दूरी पार कर राजस्थान पहुंचता है। मंगोलिया और पूर्वी चीन तक फैले साइबेरिया के भूभाग से उड़ान भरने वाले दल चीन को पार कर हिमाचल के ऊपर से भारत में प्रवेश कर राजस्थान तक पहुंचते हैं। यह पक्षी जब उड़ान भरते हैं, तो सामन्यतः वी 'v' कि आकृति में आसमान में धरती से 26000 फीट तक कि ऊंचाई पर उड़ती हैं।
सामन्यतः कुरजां पक्षियों के दलों का आगमन राजस्थान में 3 सितंबर को हो जाता है, कभी एक-दो दिन कि देरी भी हो सकती है। लेकिन अधिकांश वर्षों में कुरजां के पहले दल का आगमन राजस्थान में 3 सितंबर को होता रहा है। इसके बाद भी कई दल राजस्थान पहुंचते हैं, अपने आगमन के समय राजस्थान के कई जिलों में तालाबों के आसपास कुरजां पक्षियों के दलों को देखा जा सकता है, किंतु अपने आगमन के कुछ दिन बाद (सामन्यतः 15 सितंबर) जोधपुर जिले के खीचन गॉव कुरजां पहुंच जाती है, मार्च महीने कि शुरुआत से अपने वतन वापसी कि उड़ान भरने लगती है, जो गर्मी के मौसम कि शुरुआत से पूर्व सभी पुनः अपने वतन लौट जाती है। नवंबर महीने में खीचन गॉव में कुरजां कि संख्या सर्वाधिक 25000 के आसपास पहुंच जाती हैं।
क्यो आती है कुरजां राजस्थान?
साइबेरिया और अन्य स्थान जहां कुरजां ग्रीष्म काल के दौरान निवास करती है, जो उनका मूल निवास स्थान है, वहाँ शीत ऋतु में अत्यधिक ठंड पड़ने के कारण, बर्फ पड़ने लगती है जिससे मैदानी क्षेत्र बर्फ से ढक जाता है और कुरजां के खाने पीने कि समस्या उत्पन्न होने लगती है। इस समस्या से बचने के लिए वो गर्म स्थानो कि ओर उड़ान भरने लगती हैं। गर्म स्थान के साथ जो क्षेत्र उनके लिए अत्यधिक अनुकूल हो जहां उन्हें खाने-पीने के साथ ही प्रजनन में सहायक स्थल कि तलाश में उड़ान भरती है, राजस्थान के जोधपुर जिले के फलोदी क्षेत्र का खीचन गॉव उनके लिए उपयुक्त स्थल होने के कारण दुनिया-भर में अपनी कुल आबादी 2,00,000 (हालांकि पक्षी-विशेषज्ञ मानते हैं कि कुरजां कि कुल आबादी 1,70,000 से 2,20,000 है) में से 25000 खीचन प्रतिवर्ष शीतकालीन प्रवास के लिए आती है। यहां प्रजनन के बाद गर्मी बढ़ने के दौरान मार्च महीने में पुनः अपने देश लौट जाती है।
साइबेरिया और अन्य इलाक़ा को कुरजां का मूल निवास है, वहाँ ठंड बहुत होने से कुरजां के सामने भोजन के साथ ही अपना कुनबा बढ़ाने का भी संकट रहता है। अत्यधिक ठंडे इलाके में प्रजनन और अंडों की उचित तापमान पर सिकाई (अंडे जमीन पर देने से) संभव नहीं है, जिसके कारण अपना कुनबा बढ़ाने के लिए ऐसी जगह की उड़ान भरती है, जो इलाक़ा साइबेरिया के मुकाबले में गर्म और प्रजनन के साथ ही अंडे से सुरक्षित चूजा निकलने में मदद कर सके। बर्फीले इलाके में अंडों के जमीन पर होने से बर्फ में दब जाने का भय बने रहता है, इसी भय के कारण प्रजनन के लिए यह भारत को अपना सर्वश्रेष्ठ स्थान मान लंबी उड़ान भर यहां पहुंच जाती है।
खीचन -
पूर्व में राजस्थान के जोधपुर जिला में तथा वर्तमान में, फलोदी को नया जिला बना देने से फलोदी जिले का एक गॉव है, जिसे 'कुरजां वाला गॉव या' कुरजां नगरी 'के नाम से भी संबोधित किया जाता है। जोधपुर शहर से 150 किलोमीटर दूर हैं, नवगठित फलोदी जिले से इसकी दूरी महज 4 किलोमीटर है। फलोदी ब्रॉड गेज रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है। नजदीकी एयर पोर्ट जोधपुर है।
यह गॉव कुरजां के लिए उपयुक्त स्थल है, इसी कारण प्रतिवर्ष हज़ारो पक्षी अपने शीतकालीन प्रवास के लिए यहाँ आते हैं। यह क्षेत्र उनके लिए बहुत उपयुक्त होने का कारण उनके खाने-पीने कि सामग्री कि प्रचुर मात्रा में उपलब्धि के साथ प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थल कि उपलब्धता का होना है। कुरजां का मुख्य भोजन ज्वार, नमक चुना पत्थर और खारा पानी है, जो खीचन में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके साथ ही इनके खाने योग्य छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े और घास भी इन्हें मिल जाती है। गॉव के लोगों द्वारा ज्वार चुग्गाघर (एक जगह जहां दाना देने के लिए बिखेरा जाता है) में उपलब्ध करायी जाती रही, वर्तमान में राज्य सरकार भी इसके लिए सहयोग कर रही है।
गॉव में दो छोटे-छोटे तालाब है, जहां हल्की धूप खिलने के बाद कुरजां यहां अठखेलियाँ करने के साथ नृत्य (चोंच ऊपर कर पर फैलाकर) से पर्यटकों का मन लुभाती है, सवेरे 7 बजे से 10 बजे तक चुग्गाघर, चुग्गा (ज्वार खाने) चुगने आती है, जो दस बजे तालाब चली जाती है। शाम को अपने घोंसलों को लौट जाती है।
दिनभर तालाब के आसपास के मैदान में आपको बैठी नजर आ सकती है लेकिन आप भ्रमण के उदेश्य से पहुंचते हैं तो सवेरे का नजारा सर्वश्रेष्ठ रहेगा। सवेरे आपको यहां स्थानीय लोगों के साथ पर्यटक भी इस नजारे का लुप्त उठाते मिल जाते हैं जो ईन विदेशी पक्षियों के स्वभाव से खान-पान तक की संपूर्ण जानकारी अपने अनुभव से दे सकते हैं।
प्रजनन और घोंसले -
पक्षियों में चकवा-चकवी (उल्लू) के प्रेम कि मिसाल दी जाती है, उतना ही प्रेम कुरजां में भी होता है, अगर जोड़े में किसी एक कि मौत हो जाती है तो दूसरा दाना-पानी बंद कर देता है, जिससे दूसरे कि भी मौत हो जाती है। इसी प्रेम के कारण इनके प्रजनन काल और घोंसले में भी जोड़े का सहयोग रहता है, दोनों अपनी सहभागी जिम्मेदारी को समर्पण के भाव से निभाते हैं। इनका घोंसला बड़ी घास या अन्य वनस्पतियों में जमीन पर ही होता है, जो किसी को आसानी से नजर नहीं आए ऐसी जगह ढूँढने की जिम्मेदारी नर पक्षी की होती है।
मादा पक्षी दो अंडे देती है, मादा कि अनुपस्थिति में घोंसले कि रक्षा करने कि जिम्मेदारी नर की होती है। मादा जब दाना चुगने के लिए बाहर जाती है तो नर अंडों की सिकाई करता है। चूजे निकलने तक नर और मादा दोनों मिलकर काम करते हैं, किन्तु नर की मादा के मुकाबले में अधिक जिम्मेदारी होती है। घोंसले को दुश्मनों से बचाने की जिम्मेदारी भी नर पक्षी की होती है। राजस्थान में जन्मे नवजात भी मार्च में पुनः साइबेरिया लौट जाते हैं।
राजस्थान कि संस्कृति और कुरजां -
पहले ही बता दिया है कि राजस्थान कि संस्कृति में कुरजां का विशेष महत्व है, जब सितंबर के महीने में कुरजां का आगमन होता है तो आसमां से कुर्र-कुर्र कि आवाज आने लगती है, तब राजस्थान के लोग इनकी उड़ने कि व्यूह रचना को निहारते है, बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते है, 'कुरजां - कुरजां कुण्डियो काढ' (कुरजां गोल चक्कर बनाओ) साथ ही मधुर ध्वनि कि भी अपील करते हैं। इसके अलावा राजस्थान में कितने ही लोकगीत कुरजां पर बने हुए हैं।
कुरजां को राजस्थान में प्रेम का प्रतीक माना जाता रहा है, एक तो इनके स्वयँ का जोड़े में एक-दूसरे के प्रति समर्पण और दूसरा जन्मभर साथ रहना। इसी प्रेम के प्रतीक के कारण लोग इन्हें प्रेम का संदेश अपने प्रेमी और प्रेयसी तक पहुंचाने के लिए कुरजां को संबोधित करते हुए लोकगीत तक बना लिए गए।
कुरजां और लोकगीत
कुरजां लंबी उड़ान भरकर आती है, ऐसे में राजस्थान के लोकगीतों में प्रेयसी अपने प्रेमी को संबोधित करते हुए कुरजां से आग्रह करती है कि आप मेरा संदेश मेरे प्रियतम को दे देना, कि आपकी याद आ रही है। विरह कि मारी प्रेयसी कुरजां को संबोधित करते हुए आग्रह करती है कि -
कुरजां तू म्हारी बैनडी ए, सांभळ म्हारी बात, ढोला तणे ओळमां भेजूं थारे लार। कुरजां ए म्हारो भंवर मिला देनी ए।वीणा
कुरज तू मेरी बहन है, तुम मेरी बात पर ध्यान धरो, तुम्हारे साथ मैं मेरे प्रियतम को शिकायत भेज रही हूँ, तुम मेरा संदेश उनको पहुंचा बता देना और मेरे प्रियतम को मुझ से मिला देना।
म्हनै तेजाजी री, ओलूं आवे ए कुरजां... संदेशों ले जा.. कुरजां
इस गाने से लोक देवता तेजाजी कि पत्नी (पेमल) कुरजां से आग्रह करती है कि मुझे तेजाजी (उनके पति) कि बहुत याद आ रही है। कुरजां, तुम मेरा यह संदेश तेजाजी तक पहुंचा देना की आपकी पत्नी आपके विरह में डूबी हुई है।
राजस्थान कि संस्कृति में कुरजां को प्रियतम को संदेश देने वाले पक्षी के रुप में की जाती रही है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि जहां प्रेम है वहाँ कितना हार्दिक और अंतर्मन का सौंदर्य होता है, कितना अपनापन होता? प्रेम को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता है महसूस किया जा सकता है। इसका इजहार कितना मुश्किल होता है, जहां गुप्त संदेश अपने प्रेमी को एक प्रेयसी भेजती है या एक नववधू अपने वर को या एक पत्नी परदेश गए अपने पति को संदेश जिस पक्षी के माध्यम से संदेश भेजती है तो उसके लिए हृदय और अंतर्मन के भाव कि गहराई कितनी होगी? नापी नहीं जा सकती हैं। इस गुप्त संदेश के लिए एक विदेशी पक्षी को चुना जाता है तो आप समझ सकते हैं कि उनका मूल भले ही विदेशी हो लेकिन राजस्थान में अपने प्रेमी के विरह में डूबी प्रेमिका मानती है कि यह पक्षी अपने ही है और मेरा संदेश मेरे प्रेमी तक पहुंचा ही देंगे। जब इतना प्रेम इनके प्रति है तो इन्हें विदेशी पक्षी कहा जाना राजस्थान की संस्कृति के अनुसार उचित नहीं है।
कुरजां के सामने संकट -
साइबेरिया में सर्दी के मौसम में कुरजां राजस्थान खासतौर से खीचन आती रही है, आज भी आ रही हैं। वर्तमान समय में बढ़ते विकास और जनसंख्या ने कुरजां के सामने संकट खड़ा कर दिया है। आजकल विद्युत के तारो में फंसने से इनकी जान जा रही है तो दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या के कारण चारागाह कि भूमि में कमी होने से खेतों में घुस जाती है, जिससे कुत्ते इन्हें मार देते हैं तो कई बार किसान नुकसान से बचने के कारण इन्हें चोट पहुंचा देते हैं। हालांकि, कुत्तों द्वारा मारे जाने का संकट सर्वाधिक होता है, जहां आबादी होती है वहाँ।
खीचन में ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए पंचायत और राज्य सरकार द्वारा कई कदम उठाए गए। सरकार द्वारा पक्षी एम्बुलेंस भी पंचायत को दे रखी है, ताकि आपातकाल में त्वरित उपचार दिया जा सके।
ग्रामीण सेवा राम माली हमेशा से इनकी सेवा में अग्रणी व्यक्तियों में से एक रहे हैं, इसी कारण इन्हें कई वन्यजीव पुरुस्कारों से अब तक सम्मानित किया जा चुका है।
अन्य प्रश्न -
प्रश्न: डेमोइसेल सारस का नाम कुरजां कैसे पड़ा?
उत्तर: जोर-जोर से इनके द्वारा कुर्र-कुर्र आवाज करने के कारण इनका नाम कुरजां पड़ा।
प्रश्न: कुरजां पक्षी को स्थानीय भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर: कुरज और कुर्जन कहा जाता है।
प्रश्न: कुरजां पक्षी राजस्थान क्यों आती है?
उत्तर: साइबेरिया में अत्यधिक ठंड से बर्फ गिरने के कारण खाने-पीने कि तलाश के साथ प्रजनन के लिए गर्म प्रदेश आती है, राजस्थान कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने के कारण राजस्थान सितंबर में आती है तथा मार्च में पुनः अपने देश लौट जाती है।
प्रश्न: राजस्थान का खीचन किसके लिए प्रसिद्ध हैं?
उत्तर : राजस्थान का खीचन कुरजां के लिए प्रसिद्ध है, इसी कारण इसे 'कुरजां नगरी' कहा जाता है।
प्रश्न: खीचन के अलावा जोधपुर (राजस्थान) में कुरजां कहाँ आती है?
उत्तर: जाजीवाल, जांबा, धवा व ओलवी नए आश्रय स्थल गुढ़ा विश्नोइयान, मलारमगरा (फलौदी), गुढ़ा विश्नोइयान, लूणी, धुंधाड़ा, तिंवरी, मांडियाई, बालरवा, बड़ा कोटेचा, बिजारिया बावड़ी, बनाड़, आदि जगह तालाबों पर कुरजां आती है।
प्रश्न: राजस्थान के किस जिले का शुभंकर कुरजां पक्षी हैं?
उत्तर : राजस्थान के जोधपुर जिले का शुभंकर है कुरजां पक्षी।
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