क्या नेता का पढ़ा लिखा होना अनिवार्य नहीं, अनपढ़ नेता। Anpadh Neta

वैसे नेता का पढ़ा-लिखा होना चाहिए या नहीं। इसे लेकर अक्सर समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ ही साथ आम आदमी में भी बहस देखी जाती रही है। समाज का बहुत बड़ा वर्ग तो इस मुद्दे पर कई बार अपने तर्क देते हुए यह तक कह देता है कि नेता का पढ़े-लिखे होना आवश्यक है। इससे आगे कई बार तो ऐसे तर्क भी सुनने को मिलते हैं कि देश में नेता बनने के इच्छुक लोगों के लिए संघ लोकसेवा आयोग कि तर्ज़ पर एक परीक्षा आयोजित करवा देनी चाहिए। जो इस परीक्षा को उत्तीर्ण करे उन्हें ही चुनाव लड़ने कि अनुमति होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो नेता बनने के लिए न्यूनतम शिक्षा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित परीक्षा के द्वारा अर्हता अर्जित किए हुए प्रतियोगियों को ही चुनाव लड़ने कि अनुमती दी जाए।

क्या नेता का पढ़ा लिखा होना अनिवार्य नहीं, अनपढ़ नेता। Anpadh Neta



उपर्युक्त तर्क कर्णप्रिय है साथ ही पढ़ने पर हृदय और नेत्रों को सुकून देने वाला है। परीक्षा से अर्हता अर्जित कर नेता बनने का तर्क पढ़े-लिखे नेता बनने कि राह तलाश रहे युवको और युवतियों का समर्थन हासिल करने वाला है, लेकिन समाज का प्रत्येक वर्ग ऐसे तर्क को उसी रुप में स्वीकार कर सके यह आवश्यक नहीं। अनपढ़ नेता पर शायरी के लिए इसे पढ़े

क्या नेता बनने के लिए शिक्षित होना आवश्यक?

भारतीय संविधान के अनुसार नेता बनने के लिए जो योग्यता का होना अनिवार्य है, उसमे शिक्षा का उल्लेख नहीं है। संविधान के अनुसार तो उसे साक्षर होने कि भी आवश्यकता (कुछ स्थानीय निकाय और पंचायती राज के चुनाव छोड़कर) नहीं है अंगूठा टेक व्यक्ति भी भारत कि संसद और विभिन्न राज्यों कि विधानसभा का सदस्य बन सकता है। उसके लिए जो योग्यताएं अनिवार्य है, जो निम्नलिखित है। 
  •  भारत का नागरिक होना। 
  • मानसिक रुप से स्वस्थ (पागल न होना)
  • दिवालिया घोषित न होना। 

उपर्युक्त योग्यता में शिक्षा का वर्णन नहीं होने के कारण अशिक्षित व्यक्ति भी चुनाव लड़ने और चुने जाने का अधिकार रखता है। इसके अतिरिक्त जो सरकारी और लाभकारी पदों पर है, उसे चुनाव लड़ने का अधिकार है, किंतु चुने जाने के बाद पद त्याग के लिए संविधान कि शर्तें लागू हो जाती है। ऐसे में सरकारी और लाभकारी पद होना, नेता बनने के आड़े में नहीं आता है। 

क्यो नही है, शिक्षा का प्रावधान? 

जब हमारे देश में संविधान को अंगीकार किया गया, तब संविधान सभा ने शिक्षा कि बजाय सामाजिक प्रतिनिधित्व को अधिक महत्व दिया। संविधान निर्मात्री सभा का मानना था कि नेता वह व्यक्ति है, जिसमें नेतृत्व के गुण विद्यमान हो। नेतृत्व के लिए पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य नहीं रखा गया। 

नेतृत्व करने कि क्षमता तथा पढ़ाई में कोई संबंध नहीं है। ऐसा महज राजनीति में ही नहीं अपितु कई अन्य क्षेत्रों में देखने को मिलता रहा है। भारतीय उद्योग जगत कि बात कि जाए तो धीरूभाई अंबानी, गौतम अडानी और अजीम प्रेमजी जैसे लोगों ने साबित किया कि पढ़ाई लिखाई और नेतृत्व में कोई संबंध नहीं है। ठीक इसी प्रकार का मेटा के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग भी ऐसा ही उदाहरण है, वैश्विक पटल पर। 

उद्योग जगत के अतरिक्त कला, विज्ञान और खेल जगत में भी कम पढ़े-लिखे या बिल्कुल भी नहीं पढ़े लिखे लोगों ने अपना मुकाम स्थापित किया है। उन्होंने समय-समय पर साबित किया है कि पढ़े-लिखे इतिहास पढ़ते हैं और अनपढ़ इतिहास को गढ़ते है। पढ़ाई लिखाई से नए और सामंजस्यपूर्ण विचारों कि उत्पत्ति हो इस बात कि गारंटी कोई भी शिक्षण संस्थान नहीं देता है। 

राजनीति कि बात कि जाए तो यह एक समाज सेवा का जरिया है, कोई प्रतियोगिता का अखाड़ा नहीं नहीं, जहां जनादेश से अधिक महत्व अन्य योग्यताओं को दिया जाए। यह समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व समाज कि मांग के अनुरुप किए जाने से है, खुद के अधिकारों या खुद के सिद्धांतों के अनुरुप चलने कि कोई राह नहीं। ऐसे में अगर शिक्षा को साथ में जोड़ दिया जाए तो यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आड़े आ सकता है, क्योंकि सभी वर्गों को समान अधिकारों कि प्राप्ति नहीं होगी। ऐसे में विशेष वर्ग के पास ही नेता बनने कि योग्यता होगी जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए किसी भी प्रकार से अनुकूल नहीं होगी। 

नेता अनपढ़ ही क्यों? 


वर्तमान व्यवस्था में नेता पढ़ा-लिखा भी तो हो सकता है, अनपढ़ होना तो कोई आवश्यक या अनिवार्य तो नहीं है। क्षेत्र विशेष अथवा निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता स्वयं चाहे तो पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपने नेता के रूप में चुन सकते हैं। इसके बावजूद भी पढ़े-लिखे लोग राजनीति के अखाड़े में मतदाताओं के जनादेश से मात खाते रहे हैं। शिक्षित वर्ग के लोगों का मतदाताओं द्वारा अपने नेता के रूप मे चुनाव नहीं किया जाना, शिक्षित वर्ग के साथ ही बुद्धिजीवी वर्ग के लिए चिंताजनक विषय जरूर हो सकता है। 


हालाँकि हमारे सामने कई शिक्षित लोग उच्च श्रेणी के नेता के रुप में उदाहरण है ऐसे में हम यह नहीं कह सकते हैं कि मतदाता शिक्षित व्यक्ति को नेता नहीं चुनते। मतदाता द्वारा अपना नेता चुने जाने के कई परिमाण और मानदंड है, वो अपने मानदण्डों कि कसौटी पर खरा उतरने वाले व्यक्ति को ही नेता चुनता है। इन मानदण्डों में जातिवाद, क्षेत्र और लोगों कि समझ, सद्व्यवहार, जान-पहचान और सामाजिक कार्यो के प्रति लगाव। ऐसे में हम शिक्षित व्यक्ति में यह सभी गुण विद्यमान हो आवश्यक नहीं।

समाज और मतदाता का बड़ा वर्ग मानता है कि उनका नेता उन्हीं में से कोई एक होना चाहिए, ऐसे में कई बार स्थापित नेता या इच्छुक व्यक्ति, लोगों में अपनत्व कि भावना स्थापित करने के लिए स्वयं को उसी रुप में डाल लेता है, जो समाज चाहता है। उसका व्यवहार भी परिवर्तित हो जाता है और पढ़े-लिखे लोगों कि बजाय अनपढ़ कि भाँति व्यवहार करने लगता है, जिससे हम कई बार पढ़े-लिखे नेता को अनपढ़ नेता कि श्रेणी में रख देते हैं। ऐसे पढ़े-लिखे अनपढ़ नेता हिन्दी को बेहतर तरीके से जानने के बावजूद भी अपनी क्षेत्रीय भाषा और लहजे को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि यहीं उनके नेता बनने का मूल कारण होता है। ऐसी देखा-देखी और स्वरूप के साथ चरित्र बदलने वाली जटिल प्रक्रिया में नेता के पढ़े लिखे होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है और लोग उसे अनपढ़ ही समझने लगते हैं। 

नेता द्वारा स्वरूप और चरित्र बदलकर अनपढ़ जैसा व्यवहार करने से समाज के पिछड़े, संकोची और अनपढ़ लोग भी अपनी बात बेझिझक उसके सामने रख सकते हैं, जिसे वह शिक्षित लोगों के सामने रखने से कतराते है। नेता द्वारा बनाई गई कृत्रिम अपनत्व कि भावना के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति जब चाहे नेता से मिलकर अपनी समस्या को बेहतर तरीके से उसे समझा सकता है। 

वो उसे ऐसी समस्या आसानी से बता देता है और समझा देता है, जो बरसों से सरकारी अफसर को समझाने में कामयाब नहीं हुआ हो। हालाँकि सरकारी अफसर भी विशेष क्षेत्र के सेवक मात्र ही होते हैं, किन्तु उनके सामने मतदाता अपनी समस्या रखने से कतराते है, क्योंकि सरकारी अफसरों का व्यवहार लचीलापन कि बजाय शिक्षा के चलते अधिक कठोर हो जाता है, इसी के कारण शिक्षित लोगों कि भाँति व्यवहार करने वाले पीछे रह जाते हैं। उन्हें समाज का बड़ा वर्ग अपना नहीं मानता है।

अधिक पढ़े लिखे होते हैं, असफल नेता -

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हो या भारत के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम। इनके अलावा भी सूची काफी बड़ी हो सकती है, जो स्वयं को शिक्षा के बल पर राजनीति में स्थापित कर लूट-खसोट के सिवा कुछ कर नहीं पाए। दूसरी तरफ शशि थरूर तो कहते हैं कि जो हवाई जहाज में सस्ती टिकट से सफर करते हैं, वो जानवर है। इनकी सोच सरकारी कार्यालयों के बाबू और अफसरों के समान ही है।

सरकारी अफसर कभी भी अपने सामने समस्या लाने वाले और हल चाहने वाले से सुलझे हुए और बेहद हल्के मुद्दे पर भी सामने खड़े व्यक्ति को आसानी से कह देते हैं कि "यह आपकी समझ में नहीं आएगा" वहीं दूसरी तरफ नेता उसी मुद्दे पर अपने सामने वाले आम से आम और बहुत कम ज्ञान रखने वाले अनपढ़ व्यक्ति से भी पूछ लेता है "आपकी नजर में इसका क्या हल है?" बस यही कृत्रिम रूप से बनाई हुई सामंजस्यपूर्ण भावना उन्हें मतदाताओं के बीच में एक नेता के रूप में स्थापित करती है। दूसरी तरफ शिक्षित वर्ग में जो आम जन के प्रति भावना और स्वयं के ज्ञान का जो उन्हें अहंकार है वो उनके लिए नेता बनने में बाधा है।

जिस दिन देश में अफसर खुद को अफसरशाही से निकाल कर आमजन के लिए खुद के कार्यालयों के द्वार द्वारपालों से मुक्त कर खोल देंगे, उसी दिन से समाज अन्य सभी मुद्दो को गौण कर अपने दिल के द्वार शिक्षित वर्ग के नेता बनने के लिए खोल देगा। वर्तमान परिस्थिति में शिक्षित वर्ग को शिक्षित होने के अतिरिक्त नेता बनने का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है

आवश्यक प्रश्न - 


प्रश्न - क्या नेता बनने के लिये किसी परीक्षा का आयोजन किया जाना चाहिए?

उत्तर - बिल्कुल भी नहीं। अगर नेता बनने के लिये परीक्षा आयोजित कर केवल सफ़ल लोगों को ही चुनाव लड़ने और प्रतिनिधि के रूप में सेवा का मौका दिया जाए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या होगा? सभी को चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा, जिसके कारण लोकतंत्र कुछ लोगों का ही रह जाएगा सबका नहीं।

प्रश्न - क्या अनपढ़ व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है?

उत्तर - हाँ, एक लोकतांत्रिक देश में जहां सबको लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनने का अधिकार है, वहाँ कोई बंधन नहीं हो सकता है, शिक्षा का।

प्रश्न - अनपढ़ व्यक्ति को नेता चुनने से क्या नुकसान होता है?

उत्तर - अनपढ़ व्यक्ति को कानून और उसके स्वयँ के अधिकारों और नैतिक कृत्वय का बोध नहीं होता तो वह जनता के अधिकारों की क्या रक्षा कर सकता है? वह स्वयं विवेकहीन है तो जनता को क्या विवेक दे सकता है? इसके अतिरिक्त कई बार वह सही समय पर सही मांग नहीं कर सकता है, जिससे जनता को नुकसान होता है।

प्रश्न - लोग अनपढ़ को अपना नेता क्यों नहीं चुनते हैं?

उत्तर - भारत जैसे देश में जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था है वहाँ शिक्षित मतदाता के मुकाबले में अनपढ़ मतदाता अधिक है, जिसके कारण अनपढ़ मतदाता अनपढ़ नेता में हो अपनापन देख उसे नेता चुन लेते हैं।

 प्रश्न - राजनीति में पढ़े लिखे व्यक्ति सफल क्यों नहीं होते हैं?

उत्तर - अनपढ़ नेता के मुकाबले में पढ़े-लिखे नेता के पास धूर्तता मक्कारी और स्मार्टनेस का अतिरिक्त डोज होता है जिसके कारण वो भ्रष्टाचार भी अनपढ़ के मुकाबले में बड़ा करता है। इसके अतिरिक्त उसका एक अधिकारी की भांति अधिकांश लोगों से जुड़ाव भी नहीं होता जिसके कारण ऐसे लोगों को जनता एक नेता के रूप में स्वीकार नहीं करती है। 

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