खेजड़ी का वृक्ष। Khejri Rajasthan Rajya Vriksh

खेजड़ी का वृक्ष। Khejri Rajasthan Rajya Vriksh

खेजड़ी मरुस्थल का एक वृक्ष है। यह भारत में मरुस्थलीय हिस्से में पाया जाता है। खेजड़ी को शमी वृक्ष कहा जाता है, शमी वृक्ष का बहुत धार्मिक महत्व है। खेजड़ी के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग कई नाम है उनमे कांडी, शमी, सुमरी, झांटी आदि। खेजड़ी पर जो फली लगती है, उसे सांगरी कहा जाता है।

खेजड़ी का लेग्यूमिनेसी कुल से संबंध है तथा फलीदार वृक्ष है। मरुस्थलीय वृक्ष होने के कारण पत्ते छोटे-छोटे होते हैं और डालियाँ कांटेदार होती है। इस पेड़ का तना काफी मोटा होता है एक बड़ी खेजड़ी के तने का व्यास 1 मीटर तक हो सकता है, जबकि सामन्यतः यह 18-24 इंच का होता है। तने पर मोटी दरार वाली शल्कीय छाल पायी जाती हैं। तना हल्के सफेद भूरे रंग का होता है, जो राख के रंग से काफी मिलता है। इस पेड़ की ऊंचाई 7-10 मीटर की होती है। 

वैज्ञानिक वर्गीकरण - 


तथ्य  स्पष्टीकरण 
जगत  पादप (Plant) 
वंश  प्रोसोपीस (Prosopis) 
जाति  साइनेरेसिया (Cineraria) 
वैज्ञानिक नाम  प्रोसोपीस साइनेरेरिया (Prosopis Cineraria)

खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष -


राजस्थान का कल्पवृक्ष कहीं जाने वाली खेजड़ी को संरक्षित करने के उदेश्य से राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष 31 अक्तूबर, 1983 को घोषित किया गया। राज्य वृक्ष घोषित किए जाने के साथ ही इसकी अवैध कटाई पर रोक लगा दी गई। हालांकि राजस्थान में अवैध रूप से वनों की कटाई को रोकने के उदेश्य से राजस्थान वन अधिनियम 1953 बनाया गया जो वन भूमि तक सीमित था। कृषि भूमि पर वनों की कटाई को रोकने के लिए राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1956 को बनाकर अवैध कटाई के खिलाफ जुर्माने का प्रावधान किया गया। खेजड़ी को राज्य वृक्ष घोषित किए जाने का उदेश्य पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखना था। मरूस्थल में जेठ आषाढ़ के महीनों में हड्डियों को गला देने वाली गर्मी के दिनों में भी खेजड़ी घनी और हरी-भरी रहने के कारण वन्य जीवों को संरक्षण प्रदान करती हैं। 

खेजड़ी को राज्य वृक्ष घोषित किए जाने के बावजूद भी दशकों से जुर्माने की राशि में कोई परिवर्तन नहीं किया जाना खेजड़ी को संरक्षित करने में बाधा बन गया है। आज भी खेजड़ी की कटाई करने वालों पर राजस्थान काश्तकारी (Rajasthan Tenancy Act.) अधिनियम 1956 के अनुसार कारवाई की जाती है। इस अधिनियम में अवैध कटाई करने वाले व्यक्ति के खिलाफ महज जुर्माने का प्रावधान है। अधिनियम की धारा 84 के अनुसार राज्य वृक्ष खेजड़ी को काटने वाले व्यक्ति पर एक बार गलती करने पर 100 रुपये और अगली बार गलती करने पर महज 200 रुपये आर्थिक दंड का प्रावधान है। दशकों बाद भी जुर्माने की राशि को ना बढ़ाया जाना और सजा का प्रावधान नहीं किया जाना अवैध कटाई को रोकने में नाकाफी साबित हो रहा है। 

खेजड़ी का धार्मिक महत्व - 


खेजड़ी को शमी का वृक्ष कहा जाता है, शमी का हिंदू धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान है। खेजड़ी की लकड़ी को शमीधा (समिधा) कहा जाता है, जिसका उपयोग धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए किया जाता है। समिधा को बहुत ही पवित्र माना जाता है, इसी तरह शमी वृक्ष यानी खेजड़ी को भी पवित्र माना जाता है। महादेव जी, गणेश जी और अन्य कई कार्यक्रमों में पूजा के लिए खेजड़ी के पत्ते उपयोग में लिए जाते हैं। 

खेजड़ी की पवित्रता आप इस बात से समझ सकते हैं कि इसका वर्णन हिन्दुओ के महान धार्मिक ग्रंथ महाभारत और रामायण में भी है। माना जाता है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी ने रावण से लंका का युद्ध करने से पूर्व शमी वृक्ष की पूजा की थी। भगवान ने विजय की कामना की इसी के कारण आज भी विजयादशमी के दिन खेजड़ी की पूजा की जाती है और इसके पत्ते भी घर लेकर जाते हैं। वही महाभारत काल से भी माना जाता रहा है कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरधारी अर्जुन ने अपने अज्ञातवास के दौरान अपने अस्त्र गांडीव समेत खेजड़ी के पेड़ पर छुपाये थे। 

राजस्थान में वैशाख के महीने में वैशाख करने वाली बालिकाएं (कुंवारी कन्या) पीपल के अतिरिक्त खेजड़ी के पेड़ की भी पूजा करती है। वैशाख करने वाली बालिकाएं पूरे महीने दिन में एक बार ही भोजन कर खेजड़ी और पीपल के पेड़ को पानी पिलाती है। इनके अतिरिक्त राजस्थान में पायी जाने वाली बिश्नोई/विश्नोई जाति (भगवान जंभेश्वर द्वारा बताए गए नियमो का पालन करती है) खेजड़ी को बहुत उत्तम मानती है। यह जाति खेजड़ी के लिए प्राण भी न्यौछावर करने से पीछे नहीं हटती है। पेड़ बचाने के लिए प्राणों का बलिदान देने वाली मां अमृता देवी समेत 363 बलिदान देने वाले सभी बलिदानी बिश्नोई जाति के थे। उन्होंने यह बलिदान खेजड़ी को बचाने के लिए 1787 में दिया। उनकी याद में आज भी जोधपुर के खेजड़ली गॉव में मेला भरता है और आज भी खेजड़ी के लिए प्राण न्यौछावर करने का प्रण लेते हैं। 

खेजड़ी का पशुपालन में महत्व - लूँग 


खेजड़ी का पेड़ राजस्थान की मुख्य वनस्पति है। इसकी ऊंचाई नीम के समान ही होती है। खेजड़ी के पत्तों को स्थानीय भाषा में लूँग कहा जाता है। लूँग के कारण ही खेजड़ी का पशुपालन में विशेष महत्व है। खेजड़ी के पत्ते जानवरों के लिए उत्तम आहार है। इसमे 14-18 प्रतिशत प्रोटीन, 8 प्रतिशत लवण (कैल्शियम और लवण) और 15-20% रेशा पाया जाता है। लूँग को जानवर बड़े शौक से खाते हैं। दूसरी ओर खेजड़ी के शुद्ध मरुस्थलीय पेड़ होने के कारण जेठ आषाढ के तपते दिनों में भी खेजड़ी एकदम हरी-भरी रहती है, जिससे पशुपालकों को उन दिनों में पशुओं को चारा (लूँग) उपलब्ध करा देती है, जब अधिकांश पेड़ अपने पत्ते गिरा चुके होते हैं और राजस्थान में पनपने वाली घास भी पानी के अभाव में जलकर राख हो चुकी होती है। 

राजस्थान में खेतों में पायी जाने वाली खेजड़ी को खेत में से नहीं काटने का एकमात्र उदेश्य होता है, लूँग की उपलब्धता। खेजड़ी के पेड़ से लूंग को प्राप्त करने के लिए राजस्थान में दो तरीकों को अपनाया जाता है। कुछ रेतीले हिस्सों में जहां खेजड़ी पर कांटे नाममात्र के होते है वहाँ व्यक्ति हाथ से पेड़ से पत्ते छूंट कर (बीनकर) पशुओं को खिलाया जाता है तो वहीं जहां खेजड़ी पर कांटे अधिक होते हैं वहाँ कुल्हाड़ी से डालियाँ काटकर पशुओं को खिलाई जाती हैं। वर्तमान समय में कार्तिक महीने में जब खेजड़ी बहुत घनी होती है तब इसकी छंगाई कर लूंग को झाड़ कर सूखा दिया जाता है। इस सूखे हुए लूँग को पशुओं को खिलाने के साथ ही बाजार में 20 रुपये प्रति किलो से बेचा जा सकता हैं। 

खेजड़ी के पेड़ और सांगरी - 


खेजड़ी की फलियां सांगरी कहलाती हैं। सांगरी से सब्जी और अचार बनाया जाता है। सांगरी पोष्टिक होने के साथ ही कैल्शियम, आयरन, जिंक और मैग्नीशियम के साथ कई खनिज लवणों का अच्छा स्त्रोत होती हैं। सांगरी अप्रैल-मई के महीने में लगती हैं, लेकिन इसे उबालकर संरक्षित (भण्डारण) कर सालभर सब्जी बनाने के लिए काम में ली जा सकती है। 

सांगरी की मांग देश-विदेश तक है। सांगरी को उबालकर बाजार में बेचने पर अच्छे दाम मिल जाते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए काजरी जोधपुर के साथ बागवानी संस्थान बीकानेर द्वारा उन्नत किस्म की सांगरी पैदा करने के साथ अधिक उत्पादन हो इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं। 

लूँग और सांगरी उत्पादन बढ़ाने के लिए कलिकायन और उन्नत किस्म - 


खेजड़ी मरुस्थल के पारिस्थितिकी तंत्र का जीवन मेरु हैं। इसको बचाना जनता, समाज और सरकार का उदेश्य हैं। वर्तमान का युग तकनीक और वाणिज्यिक कृषि का युग है। व्यक्ति (काश्तकार) भूमि का उपयोग कृषि के लिए करना चाहता है, साथ ही अपनी भूमि का उपयोग इस तरीके से करना चाहता है, जिससे उसे अधिक प्रतिफल प्राप्त हो। कृषि भूमि से पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए राजस्थान काश्तकार अधिनियम, 1956 में जुर्माने का प्रावधान किया गया। खेजड़ी को बचाने के लिए इसे राज्य पेड़ घोषित किया गया। लेकिन यह नाकाफी है, खेजड़ी को बचाने के लिए। खेजड़ी के पेड़ को बचाने के लिए खेजड़ी को अधिक प्रतिफल (लूँग और सांगरी) देने वाला पेड़ बनाया जाना आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखते हुए कलिकायन और खेजड़ी की उन्नत किस्में विकसित की गई ताकि व्यक्ति काटने से पहले यह सोचे की इसे काटने से उसे भारी नुकसान होगा इसलिए ना ही काटे तो बेहतर होगा। 

खेजड़ी की किस्म - 


सामन्यतः खेतों में पायी जाने वाली खेजड़ी प्राकृतिक और परंपरागत होती है जो बीज के द्वारा उगी हुई होती है। ये सभी एकसमान नहीं होती है। किसी खेजड़ी पर अधिक मात्रा में लूँग आता है तो किसी पर बहुत कम। सभी के सांगरी में भी विभेदता पायी जाती है। किसी पर ज्यादा तो किसी पर कम, किसी की खारी और कसैली तो किसी की शक्कर जैसी मीठी। कई खेजड़ी तो ऐसी होती है जिसमें कांटे ही कांटे तो कुछ नीम जैसी। किसी के पत्ते समान्य से थोड़े बड़े तो कुछ मे छोटे-छोटे नाम के पत्ते जिससे छाया भी ना हो। ऐसे में केंद्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर और केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी), जोधपुर द्वारा खेजड़ी की नई किस्म को विकसित किया गया को प्राकृतिक और पहले से विद्यमान खेजड़ी से अलग होने के साथ ही उनसे अधिक लूँग और सांगरी उत्पादित करने में समर्थ है, आइए जानते हैं खेजड़ी की ऐसी उन्नत किस्में - 

  • थार शोभा - यह किस्म केंद्रीय शुष्क बागवानी संस्थान बीकानेर द्वारा विकसित की गई उन्नत खेजड़ी की एक किस्म है। इस किस्म की खेजड़ी समान्य खेजड़ी से छोटी होती है। 5-7 फीट ऊंचाई वाली इस खेजड़ी पर लूँग समान्य से अधिक आता है तथा सांगरी भी अधिक आती हैं। इस किस्म की खेजड़ी 2-3 साल में सांगरी देना शुरु कर देती है। यह पतली और महीन सांगरी देती है जो बाजार में सबसे महंगी बिकती है। इस किस्म में भी दो प्रकार है - सुपर थार शोभा और गंग शोभा। इस किस्म की खेजड़ी प्रतिवर्ष 30 किलो तक सांगरी उत्पादित करने में समर्थ है। 
  • कलिका संवर्धन - केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर द्वारा कलिकायन द्वारा विकसित की गई खेजड़ी है, जो कांटे रहित है। इस प्रकार कि खेजड़ी दूसरे वर्ष से ही सांगरी देना शुरु कर देती है। इस खेजड़ी की सांगरी परंपरागत खेजड़ी के मुकाबले में अधिक पोष्टिक होने के साथ अधिक कार्बोहाइड्रेट को स्वयं में लपेटे हुए हैं। 
इनके अतिरिक्त खेजड़ी की परंपरागत नस्ल के बेहतर पेड़ों को संवर्धित करने के उदेश्य से अच्छे और अधिक उत्पादन देने वाले पेड़ों का कलिका संवर्धन अथवा कलिकायन कर ऐसे पेड़ों को उत्पादित किया जा रहा है जो किसानो को आर्थिक संबल देने में सहायक सिद्ध हो। 

निष्कर्ष - 


आज खेजड़ी अपने अस्तित्व पर आए संकट को साफ देख रही है। पहले जहां खेजड़ी को सही तरीकों से प्रतिवर्ष छांग कर इसे सम्भाला जाता रहा वो तकनीक अब गायब हो गई है। कहीं सही से छंंगाई हो ही नहीं रहीं हैं, जो घातक है। छंंगाई के अभाव में खेजड़ी का विकास सही तरीके से नहीं होता है तथा पेड़ सूखने लगता है तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर सरकारी और ओरण भूमि पर विद्यमान खेजड़ी के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई अस्तित्व के लिए नुकसानदायक साबित हो रही है। पिछले कुछ वर्षो में सम्पूर्ण राजस्थान में सोलर ऊर्जा संयत्र स्थापित किए जाने के लिए खेजड़ी के पेड़ों की कटाई के समाचार मिलते रहे जो सुखद नहीं है। 

 आज सरकार और विभिन्न अनुसंधान संस्थान खेजड़ी के अस्तित्व को बचाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्य कर रहे हैं, जिनमे किस्म सुधार से लेकर परंपरागत पेड़ों को रोगाणुमुक्त किया जाना उल्लेखनीय है। अब काश्तकारो और समाज की जिम्मेदारी है कि किस तरीके से इसे बचाया जा सकता है, उसके लिए उपयुक्त कदम ले। समाज के लोगों के साथ विभिन्न गैर-सरकारी संस्थानों को भी आगे आना होगा। खेजड़ी बचाओ आंदोलन सिर्फ खेजड़ी तक सीमित नहीं है, य़ह वन्य जीवों को बचाने का भी आंदोलन है। मरुस्थल में पाए जाने वाले वन्य जीवों और पक्षियों के लिए खेजड़ी महत्वपूर्ण शरण स्थली है, इसे बचाना ही होगा। 

अन्य प्रश्न - 


प्रश्न - खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष कब घोषित किया गया? 

उत्तर - खेजड़ी को 31 अक्तूबर, 1983 को राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया। 

प्रश्न: शमी वृक्ष क्या होता है? 

उत्तर: शमी वृक्ष खेजड़ी होती है, इसकी लकड़ियां समिधा कहलाती हैं, जो हवन-पूजन और अनुष्ठान में प्रयोग में ली जाती हैं। 

प्रश्न: शमी वृक्ष की पूजा कब की जाती हैं? 

उत्तर: शमी वृक्ष यानी खेजड़ी की पूजा विजयादशमी के दिन की जाती है। 

प्रश्न: शमी वृक्ष कि पूजा विजयादशमी के दिन क्यों की जाती हैं? 

उत्तर: शमी वृक्ष की पूजा विजयादशमी के दिन एक मान्यता के अनुसार की जाती है। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी ने रावण से लंका युद्ध करने के पूर्व शमी वृक्ष की पूजा-अर्चना कर विजय श्री का आशीर्वाद लिया था। 

प्रश्न: खेजड़ी का वैज्ञानिक नाम क्या है? 

उत्तर: खेजड़ी का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपीस साइनेरेरिया/सिनेरिया (Prosopis Cineraria) हैं।

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1 टिप्पणियाँ

KAILASH VISHNOI ने कहा…
बेहतरीन..