आखातीज अक्षय तृतीया का धार्मिक महत्व। Aakhateej

आखातीज को देश के कई हिस्सों में 'अक्षय तृतीया' भी कहा जाता है। यह वैशाख महीने कि शुक्ल पक्ष कि तृतीया तिथि को मनाई जाती है। कहा जाता है कि इसी दिन सतयुग और त्रेतायुग का आरंभ हुआ था, इसी दिन और द्वापर युग का अंत भी हुआ था। आखातीज का धार्मिक रुप के साथ ही शुभ कार्य की शुरुआत करने में भी विशेष महत्व है। इस दिन को शुभ कार्य करने के लिए अबूझ मुहूर्त होते हैं। 

आखातीज अक्षय तृतीया


कहा जाता है अधर्म पर धर्म की विजय के लिए लड़े गए 'महाभारत' के युद्ध कि समाप्ति आखातीज के दिन हुई थी। इस दिन ही पांडवों द्वारा सभी योद्धाओं को जलांजलि दी गई, जिसके कारण पितर पूजन के लिए भी इस दिन का विशेष महत्व है। इस दिन का धार्मिक रुप से विशेष महत्व होने के कारण इस दिन किए गए सभी धार्मिक और सांसारिक कार्यो को शुभ माना जाता है। अक्षय तृतीया के दिन स्वयंसिद्ध मुहुर्त होने के कारण विवाह, लग्न, गृह प्रवेश, आभूषण, जमीन और वाहन क्रय को शुभ माना जाता है। राजस्थान में आखातीज अक्षय तृतीया के दिन आने वाले मॉनसून के संकेत को जानने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रक्रिया को कर जाना जाता है कि इस वर्ष मॉनसून कैसा रहेगा और बरसात कैसी होगी? 

अक्षय तृतीया का धार्मिक महत्व - 

  • परशुराम जयंती -  आखातीज के दिन चिरंजीवी भगवान परशुरामजी का जन्म हुआ। यह भगवान विष्णु का छठा अवतार था।
  • महाभारत युद्ध - इस दिन ही महाभारत युद्ध समाप्त हुआ था और महर्षि वेदव्यास द्वारा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथ 'महाभारत' के लिखने की शुरुआत की गई थी। 
  • कृष्ण सुदामा का मिलन - इसी दिन सुदामा अपने मित्र कृष्ण से मिलने गए थे, कृष्ण ने उन्हें भेंटस्वरुप चावल के दाने दिए थे। इस कारण इसे मित्र मिलन के दिवस के रुप में भी देखा जाता है। 
  • मां गंगा का अवतरण - राजा भागीरथ कि सशस्त्र बर्षों कि तपस्या के बाद स्वर्ग में बहने वाली मां गंगा इसी दिन पृथ्वी पर अवतरित हुई थी। मां गंगा के पृथ्वी पर अवतरण में देवो के देव महादेव जी का भी योगदान रहा। 
  • माता अन्नपूर्णा का जन्मदिन - अक्षय तृतीया के दिन भोजन की देवी 'माता अन्नपूर्णा' का जन्म हुआ था। 
  • भगवान कृष्ण द्वारा द्रौपदी कि रक्षा - इसी दिन पांडव, दुर्योधन और अन्य कोरवो से धूत क्रीड़ा में हार गए थे। और दुर्योधन द्वारा देवी द्रौपदी के चीरहरण के निश्चय कर लेने से भगवान 'श्री कृष्ण' ने द्रौपदी कि रक्षा की थी। 
  • युधिष्ठिर को अक्षय पात्र कि प्राप्ति - ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र 'युधिष्ठिर' को इसी दिन भगवान 'श्री कृष्ण' ने अक्षय पात्र दिया था, जिसमें कभी भोजन का क्षय नहीं होता था।
  • ऋषभदेव द्वारा रस पारायण - एक वर्ष कि तपस्या सफ़लतापूर्वक पूर्ण कर लेने के बाद जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर 'ऋषभदेव' ने इसी दिन शोरडी गन्ना (इक्षू) से पारायण किया था। 
  • खजाना - इसी दिन कुबेर को खजाने कि प्राप्ति हुई। 
  • कनकधारा स्त्रोत - शंकराचार्य द्वारा अक्षय तृतीया के दिन ही इस महान स्त्रोत की रचना की थी। 
  • लक्ष्मी और विष्णु भगवान कि पूजा - इच्छित फल कि प्राप्ति के लिए धन की देवी महालक्ष्मी की भगवान विष्णु के साथ जोड़े से पूजा-अर्चना की जाती है। 
  • अक्षय कुमार का जन्म - ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म आखातीज के दिन ही हुआ। 
धार्मिक यात्रा - इसी दिन बद्रीनारायण के कपाट खुलते हैं। वृंदावन में बांके बिहारी के मंदिर में विग्रह चरणों के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड में चार धाम (गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) यात्रा कि शुरुआत। इसी दिन पूरी के जगन्नाथ भगवान के रथों को बनाना शुरु किया जाता है।


क्यो मनाई जाती है आखातीज - 


इस दिन का विशेष धार्मिक महत्व होने के साथ ही स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने से आखातीज के दिन पूजा अर्चना करने के तत्पश्चात नवीन कार्यो को आरंभ किया जाता है। एक मान्यता के अनुसार इस दिन किए गए शुभ कार्यो के सफल होने का वरदान है तथा शुभ कार्यो का पुण्य कई गुना प्राप्त होता है। एक धार्मिक कहानी के अनुसार ज्येष्ठ पाण्डु युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण से आखातीज के दिन का महत्व पूछने पर श्री कृष्ण ने बताया की 'अक्षय तृतीया अथवा आखातीज के किए गए सभी रचनात्मक और सांसारिक कार्यो का पुण्य कई गुना प्राप्त होता है, इस दिन किए गए दान पुण्य और कार्यो का क्षय नहीं होता है।' आखातीज के दिन धन कि देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु का प्रभुत्व रहता है इस कारण इनकी पूजा धन प्राप्ति और कार्य में सफलता की प्राप्ति के लिए की जाती है। 

अक्षय तृतीया के दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने के कारण कई धार्मिक और सांसारिक कार्य आरंभ और संपन्न किए जाते हैं। महाभारत युद्ध की समाप्ति और जलांजलि के कारण इस दिन पितरों के आत्मा को शान्ति के लिए पितर पूजा की जाती है। आखातीज का क्षेत्र के अनुसार अपना महत्व है, विभिन्न क्षेत्रो कि अपनी मान्यताएं हैं, इस दिन के लिए। 

राजस्थान में आखातीज के दिन आने वाले मॉनसून की स्थिति को जानने और कितनी और कैसी बरसात होगी? अकाल होगा या सुकाल साथ ही लोगों का स्वास्थ्य कैसा रहेगा यह जानने के लिए 'धणी' चढ़ाई जाती हैं। इस प्रक्रिया से बरसात की स्थिति का पता कर लोग खेतों में कार्य करने के साथ ही अन्य वो सभी कदम उठा लेते हैं, जो उन्हें जीवन को खुशहाल रखने के लिए आवश्यक हैं। 

क्यो कहते हैं अक्षय तृतीया को आखातीज? 


आखातीज दो शब्दों का मेल है - आखा+तीज। आखा का अर्थ होता है - सम्पूर्ण या अक्षय और तीज का अर्थ तृतीया तिथि। इस दिन किए गए दान-पुण्य का संपूर्ण पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन धान को पीसकर या रोटी की बजाय 'आखा धान' के पकवान बनाए जाते हैं। पिसे हुए अनाज के स्थान पर कूटे हुए बाजरे, गेंहू के साथ आखा मूंग, मोठ और चावल मिलाकर खीच बनाया जाता है। इस दिन खरीफ कि फसल के लिए भी आखा (शगुन) लिया जाता है। 

अक्षय तृतीया के दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने के कारण धार्मिक और पुण्य के कार्यो का सम्पूर्ण यानी आखा पुण्य प्राप्त होता है। तृतीया के दिन इस दिन के होने के कारण तीज कहा जाता है। इस दिन के पुण्य का अक्षय (जिसका क्षय ना हो अथवा नष्ट नहीं होने वाला) पुण्य प्राप्त होता है। इसी कारण इसे आखातीज या अक्षय तृतीया कहा जाता है। 

राजस्थान में आखातीज - 


राजस्थान में भी संपूर्ण भारत कि तरह वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन अक्षय तृतीया/आखातीज मनाई जाती है। इस दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त होने से राजस्थान में आखातीज के दिन अबूझ सावो (बिना पंचांग देखे विवाह) कि धूम रहती है। गॉवों विवाह की धूम होती है। विभिन्न मान्यताओं के अनुसार आखातीज के दिन किए गए सभी कार्य शुभ होते हैं। हालांकि आखातीज जैसा शुभ मुहुर्त एक साल में साढ़े तीन शुभ मुहूर्त होते हैं, जो गुड़ी पड़वा (चैत्र नववर्ष), आखातीज, दशहरा और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का आधा भाग। लेकिन इन साढ़े तीन स्वयंसिद्ध मुहूर्त में आखातीज का सर्वाधिक महत्व हैं। 

आखातीज का कृषि और मॉनसून के लिए महत्व होने से इस दिन किसान खेतों में हल जोतते है। महिलाएं और बालिकाएं मंगल गीत गाती है। बच्चे आखातीज पर खेले जाने वाले पारंपरिक खेल आंधल घेटा (एक बच्चे की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, दूसरे बच्चे गाना गाते हुए गोल-गोल घूमते हैं। गोल-गोल घूमते बच्चों को पट्टी बंधा बालक पकड़ता है और जिसे पकड़ता है वो बाहर हो जाता है, यह खेल तब तक चलता रहा जब तक आखरी बच्चा बाहर ना हो जाए) खेलते हैं। युवा नए कार्यो की शुरुआत करते हैं और व्यापारी नवीन प्रतिष्ठान की स्थापना। गृहस्थ इस दिन पूजा करने के साथ घर में काम आने वाले बर्तन और अन्य नई चीजों का क्रय करते हैं। 

धणी कैसे चढ़ाई जाती है? 


राजस्थान में वर्षा का शगुन जानने के लिए धणी चढ़ाने कि परंपरा बर्षों नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है। धणी से मॉनसून की स्थिति को जाना जाता है, इसे सम्पन्न करने की क्षेत्रवार प्रक्रिया और प्रकार अलग-अलग होता है लेकिन सबका उदेश्य एक ही होता है, बरसात कैसी होगी इस वर्ष को जानना। इसके लिए कुछ प्रक्रिया निम्न है, इनमें से किसी भी प्रकार से चढाया जा सकता है - 

बांस कि पट्टियों से - जोधपुर शहर में घांची समुदाय द्वारा इस प्रकार कि धणी चढ़ाई जाती हैं। इस धणी को चढ़ाने के लिए मिट्टी की पाल बनाकर उस पर सात धान रख दिए जाते हैं। बनाई गई मिट्टी की पाल पर धान रखने के बाद पाल पर एक लकड़ी का खंबा रोप दिया जाता है। रोपे गए खंबे पर सूल (वी आकार का कट) लगा दिए जाते हैं। खंबे के दोनों ओर दो अबोध बालको को स्नान करा मंत्रोच्चार कर खड़े कर दिए जाते हैं। यज्ञ के लिए खड़े किए दोनों बालकों के हाथ में बांस की दो पट्टियों को पकड़ा दिया जाता हैं। इनमें से एक पट्टी सुकाल कि प्रतीक होती है, जिस पर लाल रंग कि मोली सुकाल के प्रतीकस्वरुप बाँधी हुई होती है। तो दूसरी बांस की पट्टी पर काले रंग के काजल कि बिंदी लगी होती है, जो अकाल कि प्रतीक होती है। अनुष्ठान में किए जाने वाले यज्ञ के मन्त्रोंच्चार के साथ बांस कि पट्टियां हिलने लगती है। दोनों पट्टी कभी ऊपर कभी नीचे होने लगती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती है, जब तक कोई एक पट्टी सूल पर ना चढ़ जाए। जो पट्टी पहले सूल तक पहुंचती है, उसके अनुसार सुकाल या अकाल कि घोषणा कर दी जाती है। यानी सुकाल कि प्रतीक पट्टी अगर पहले सूल पर पहुंची तो इसका अर्थ यह होगा कि इस बर्ष अच्छी बारिश होगी। जिस वर्ष कोरोना आया था उस वर्ष यज्ञ में खड़ा बालक अचेत हो गया था और उल्टियां करने लगा था, उसके कारण बीमारियो कि भविष्यवाणी कि गई। 

आखातीज अक्षय तृतीया


कच्ची मिट्टी के दिए से - इस विधी में कुम्हार कच्ची मिट्टी (ताप से दियों को पकाया नहीं जाता है) से दीपक बनाता है। एक दीपक को सुकाल का प्रतीक मानकर उस पर कुमकुम कि बिंदी लगा दी जाती है तो दूसरे पर काजल कि बिंदी लगा अकाल का प्रतीक मान लिया जाता है। फिर दोनों दीपक में एकसाथ पानी भरा जाता है। कच्ची मिट्टी के दीपक में पानी अधिक समय तक टिक नहीं सकता और पानी से दिए फूट जाते हैं। लेकिन जो दीपक पहले फूटता है, उसके उल्टी भविष्यवाणी की जाती है। यानी अकाल का पहले फ़ूट गया तो सुकाल कि घोषणा होती है। 

बालकों कि कुश्ती से - इस विधि में दो बराबरी के अबोध बालको को अकाल और सुकाल का प्रतीक बनाकर दोनों बालकों में कुश्ती करा दी जाती है, जो बालक जीत जाता है, उसी के अनुरुप भविष्यवाणी की जाती है। 

इसके अतिरिक्त भी विधियां है। प्रत्येक गॉव की अपनी विधि है। सबका लक्ष्य एक ही होता है बरसात के संकेतों को जानना। कहीं इसके लिए नारियल को फोड़ा (नारियल साफ और बढ़िया निकलता है तो अच्छी बरसात होगी वहीं दागदार और सड़ा हुआ निकलता है तो अकाल) जाता है तो कहीं बच्चों को सुकाल और अकाल के प्रतीकात्मक रुप से रोपे गए खंबे पर चढ़ाकर। जहां बालकों को इस विधि में उपयोग में लिया जाता है वहाँ बालकों को इस प्रक्रिया और परिणाम का पता नहीं होता है ताकि परिणाम पर कोई विपरीत असर ना हो। साथ ही बालकों को समान रुप दे प्रोत्साहन दिया जाता है, किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाता है ताकि शकुन पर विपरीत असर या बाधा उत्पन्न ना हो और प्रक्रिया से कार्यसिद्धि के साथ सही नतीजों तक पहुंचा जा सके। 

राजस्थान में चार दिन का त्यौहार आखातीज - 


राजस्थान में आखातीज का त्यौहार कुल चार दिन का होता है। आखातीज का त्यौहार आने वाले मानसून की स्थिति, खेती-किसानी और वर्षा के शगुन से जुड़ा हुआ होता है। खरी-किसानी का त्योहार होने के कारण आखातीज की धूम शहरों की अपेक्षाकृत गांवों में अधिक होती है। वैशाख महीने की अमावस्या के दिन घरों में महिलाएं जल्दी उठकर बाजरे का खीच बनाती है। पुरुष उठकर खेतों में हल जोतते है। इस वैशाख महीने की अमावस्या को 'हली अमावस्या' के नाम से जाना जाता है। अमावस्या के दिन सवेरे से ही गॉव के बुजुर्ग एक जगह इक्कठे हो जाते हैं। सभी घरों से जहां बुजुर्ग इकट्ठे हुए हैं, वहाँ खीच पर गुड़ और घी डालकर वहाँ पहुँचाया जाता है। दोपहर तक बच्चे भी खेल खेलने के बाद खाना लेकर वहाँ पहुँचते हैं और सभी इकट्ठे ही खाना खाते हैं। इससे प्रेम और बंधुत्व को बढावा मिलने के साथ संघठन कि भावना को भी बढावा मिलता है। महिलाएं भी एकत्रित हो मंगल गीत गाती है। 

इस दिन पुरुष और बच्चे खेती के कार्य कि शुरुआत इस शुभ दिन से शुरु कर देते हैं। सांकेतिक रुप से खेत में हल जोतते है। एक छोटे हल को एक व्यक्ति या बच्चा खिंचता है, दूसरा बीज बोता है, यह सांकेतिक है। हल पर घंटी (टोकरिया) बाँधा जाता है। इसे बर्ष में अच्छी बारिश के शगुन के मंगल गीत गाए जाते हैं। इस दिन सवेरे खेतों से मधुर घंटियों कि ध्वनि के साथ लोकगीतों का गायन मन मोह लेने वाला दृश्य होता है। साथ ही घरों में महिलाओं द्वारा खीच बनाने के लिए ओखली में बाजरे को कूटा जाता है जिससे घरों से मूसल कि आवाजे आती रहती है। कुल मिलाकर सवेरे से ही दिन का समा बंधने लगता है। 

अमावस्या के बाद वैशाख प्रतिपदा को भी अमावस्या के जैसा ही माहौल बना रहता है। फिर तृतीया यानी आखातीज के दिन लाटा लेने (फसल कटाई के बाद धान को अलग करना) की प्रकिया होती है। इसके बाद दिन में वर्षा के संकेत जानने के लिए बुजुर्गों द्वारा धणी चढ़ाने कि प्रक्रिया की जाती है। बच्चे पारम्परिक खेल खेलते हैं। इस दिन मंगल कार्यो को भी खूब किया जाता है। पितर पूजा के साथ नव गृह प्रवेश, विवाह, लगन जैसे कई मंगलकारी कार्य होने से इस दिन का महत्व पिछले तीन दिन के मुकाबले अधिक होता है। 

अमावस्या से शुरु हुआ यह त्यौहार वर्षा के संकेत जानने के साथ खत्म होता है। इस दिन से ही लोग खेतों में सूङ (खेत साफ करना) के कार्य में जुट जाते हैं।

आखातीज से संबंधित प्रश्न -


प्रश्न : आखातीज कब मनाई जाती हैं?

उत्तर - आखातीज वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है।

प्रश्न - आखातीज क्यों मनाई जाती है?

उत्तर - आखातीज वर्ष में साढ़े तीन अबूझ मुहूर्त में से एक होने के साथ इस दिन किए जाने वाले धार्मिक सांसारिक और पुण्य के कार्यों का अक्षय फल मिलता है, जिसके कारण आखातीज मनाई जाती है।

प्रश्न - आखातीज के अन्य नाम क्या है?

उत्तर - आखातीज का अन्य नाम अक्षय तृतीया है।

प्रश्न - वैशाख शुक्ल तृतीया को आखातीज क्यों कहा जाता है?

उत्तर - वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन किए गए धार्मिक और पुण्य कार्यो का पुण्य अक्षय होने के साथ आखा (संपूर्ण) होता है, इसलिए इसे आखातीज कहा जाता है।

प्रश्न - आखातीज को सोना चांदी क्यों खरीदा जाता है?

उत्तर - आखातीज के दिन धन की देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु का प्रभुत्व रहता है, जिसके कारण सोना, चांदी और आवश्यक वस्तुओं को आखातीज के दिन खरीदा जाता है। 

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